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प्रवचनसार का सार सिद्धों को तथा उस शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग को, जिसमें से भाव्य और भावक का विभाग अस्त हो गया है - ऐसा नोआगमभाव नमस्कार हो ! मोक्षमार्ग अवधारित किया है, कृत्य किया जा रहा है, अर्थात् मोक्षमार्ग निश्चित किया है और उसमें प्रवर्तन कर रहे हैं।"
टीका में यह कहा गया है कि इस मार्ग के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है; केवल यही एक मोक्ष का मार्ग है। टीका में जो 'नोआगमभाव नमस्कार हो' कहा है उसका तात्पर्य यह है कि आचार्यदेव कहते हैं कि हम ऐसे ही नमस्कार नहीं कर रहे हैं, अपितु स्वयं उसी मार्ग पर चल रहे हैं। आचार्य २४ घंटे उन्हें नमस्कार कर रहे हैं; क्योंकि वे २४ घंटे उन्हीं के बताए मार्ग पर चल रहे हैं।
इसके बाद ज्ञेयतत्वप्रज्ञापन महाधिकार की समापन की अंतिम गाथा इसप्रकार है
तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवजामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ।।२००।।
(हरिगीत) इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर ।
निर्ममत्व में स्थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ।।२००।। ऐसा होने से अर्थात् शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा ही मोक्ष होता होने से इसप्रकार आत्मा को स्वभाव से ज्ञायक जानकर मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ ममता का परित्याग करता हूँ।
इस गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है -
“मैं यह मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्व के परिज्ञानपूर्वक ममत्व की त्यागरूप और निर्ममत्व की ग्रहणरूप विधि के द्वारा सर्व आरम्भ से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ; क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है।
प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ; केवल ज्ञायक होने से मेरा
बीसवाँ प्रवचन
३२५ विश्व समस्त पदार्थों के साथ ही सहज ज्ञेय-ज्ञायकलक्षण सम्बन्ध ही है; किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बन्ध नहीं है; इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है।
अब, एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का सद्भाव होने से, क्रमश: प्रवर्तमान, अनंत, भूत-वर्तमान भावी विचित्र पर्याय समह वाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को मानों वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गए हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुए हों - इसप्रकार एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, ज्ञेयज्ञायक लक्षण संबंध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से विश्वरूपता को प्राप्त होने पर भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्त शक्तिवाले ज्ञायकस्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता, जो अनादि संसार से इसी स्थिति में (ज्ञायकभावरूप ही) रहा है और जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना-माना जाता है; उस शुद्धात्मा को यह मैं मोह को उखाड़ फेंककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ यथास्थित (जैसा का तैसा) ही प्राप्त करता हूँ।
इसप्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अव्याबाध (निर्विघ्न) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत ऐसा यह निज आत्मा को तथा तथाभूत (सिद्धभूत) परमात्माओं को, उसी में एक परायणता जिसका लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो।"
यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि जब आत्मा को उपरोक्त प्रकार से माना; तब भाव नमस्कार स्वयमेव सदा हो ही रहा है। आचार्यदेव कहते हैं कि जब हमने नमस्कार किया, केवल तभी नमस्कार नहीं किया; अपितु जब हम नमस्कार नहीं करते हैं, तब भी हमारा नमस्कार है, हमारा नमस्कार निरन्तर हो ही रहा है।
तदुपरान्त इस गाथा के बाद जो इस अधिकार के अंत में कलश लिखे गए हैं, उनमें भी यही बात कही गई है।
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