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इक्कीसवाँ प्रवचन
प्रवचनसार परमागम के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकारों पर विस्तार से चर्चा हो चुकी है। इसके बाद चरणानुयोग सूचक चूलिका पर चर्चा करना है। इसी के अंत में परिशिष्ट के रूप में ४७ नयों का प्रकरण भी हैं।
यह चरणानुयोग सूचक चूलिका मन्दिर के शिखर और उस पर चढाये गये कलश के समान है। ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव के स्वरूप का निरूपणरूपी मंदिर तो बन चुका है; अब उस पर शिखर बनाना है और उसके भी ऊपर कलश चढाना है।
यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र इसे महाधिकार के रूप में स्वीकार नहीं करते; इसीकारण वे इसे चूलिका कहते हैं; पर आचार्य जयसेन से चारित्र महाधिकार कहते हैं ।
जो कुछ भी हो; पर इसमें जो विषयवस्तु है; वह अपने आप में अत्यन्त उपयोगी और अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
चरणानुयोग सूचक चूलिका की तत्त्वप्रदीपिका टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र मंगलाचरण के रूप में लिखते हैं कि -
( इन्द्रवज्रा )
द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धि, द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ । बुद्ध्वेति कर्माविरताः परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरंतु । । १३ ।। (दोहा)
द्रव्यसिद्धि से चरण अर चरण सिद्धि से द्रव्य ।
यह लखकर सब आचरो द्रव्यों से अविरुद्ध ।। १३ ।।
द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है - यह जानकर, कर्मों से (शुभाशुभभावों से ) अविरत दूसरे भी, द्रव्य से अविरुद्ध चरण (चारित्र) का आचरण करो।
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इक्कीसवाँ प्रवचन
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द्रव्यानुयोग के अनुसार वस्तु का सही स्वरूप समझ में आने के बाद ही चारित्र की सिद्धि होती है अर्थात् द्रव्य की सिद्धि में ही चारित्र की सिद्धि विद्यमान है। अब यदि कोई द्रव्यानुयोग के माध्यम से तत्त्वज्ञान तो समझ लें; किन्तु उसे जीवन में नहीं उतारे, आचरण में न लावेतो उसका उसको कोई लाभ नहीं है; इसलिए ही यह कहा जा रहा है कि चारित्र की सिद्धि में ही द्रव्य की सिद्धि विद्यमान है।
इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सर्वप्रथम तो ज्ञानतत्वप्रज्ञापन और ज्ञेयतत्वप्रज्ञापन अधिकार लिखकर द्रव्यानुयोग के माध्यम से मुक्ति के मार्ग का प्रतिपादन किया और ज्ञान तथा ज्ञेय के विभाग करने की प्रक्रिया बताई और अब आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि अभीतक मैंने जो तत्त्वज्ञान समझाया है, हे शिष्यगण ! तुम वह तत्त्वज्ञान समझकर जीवन में उतारो।
जीवन में वह तत्त्वज्ञान कैसे उतारे ? इसी प्रश्न का उत्तर देनेवाली यह चरणानुयोग सूचक चूलिका है।
चरणानुयोग सूचक चूलिका की प्रथम गाथा इसप्रकार है - एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ।। २०१ ।। ( हरिगीत )
हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते । परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो । । २०१ ।। हे शिष्यगण ! यदि दुःखों से मुक्त होने की इच्छा हो तो, पूर्वोक्त प्रकार से बारम्बार सिद्धों को, जिनवरवृषभ आदि अरिहंतों को तथा श्रमणों को प्रणाम करके, श्रामण्य को अंगीकार करो।
यहाँ पर ' एवं ' शब्द कहकर आचार्य प्रवचनसार ग्रन्थ के प्रारम्भ की उन तीन गाथाओं की ओर संकेत करना चाहते हैं; जिनके माध्यम से पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया था।