Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 158
________________ ३१६ प्रवचनसार का सार शुद्ध है तो वह पर्याय ऐसा मानती है कि 'मैं शुद्ध हूँ'। वहाँ पर 'मैं' तो पर्याय है और अहं त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में होता है। जब भी आत्मा के विशेषण का कथन होता है, तब उन आत्मा के विशेषणों के लिए पर्याय ऐसा कहती है कि ये मैं हूँ । वास्तव में वे विशेषण आत्मा के हैं; क्योंकि पर्याय का स्वर ऐसा होता है कि मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं एक हूँ, मैं निर्मम हूँ, ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। जैसा कि समयसार की ७३वीं गाथा के पूर्वार्द्ध में भी कहा है - 'अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो।' अर्थात् 'ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ, निर्मम हूँ और ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ।' द्रव्य तो अकर्ता और अभोक्ता है ही; पर्याय का भी यही स्वर है कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, निर्मम हूँ और ज्ञान-दर्शन से पूर्ण हूँ। ये सभी विशेषण द्रव्य के हैं, पर्याय के नहीं। हमें हमेशा यह विवेक रखना पड़ेगा कि पर्याय का अहं उस द्रव्य में होने से ये विशेषण पर्याय में लगा देते हैं; किन्तु वास्तव में तो ये विशेषण द्रव्य के हैं। यही समस्या लक्षण और लक्ष्य में भी है। आत्मा का लक्षण तो उपयोग है एवं लक्ष्य है उपयोगात्मा अर्थात् उपयोगस्वरूप आत्मा। शास्त्रों में कभी-कभी लक्ष्य को भी उपयोग कह देते हैं और कभी-कभी लक्षण को भी उपयोग कह देते हैं। लक्षण से ही वह लक्ष्य लक्षित होता है; अत: जब भी आत्मा के विशेषण कहे जाते हैं; तब हम उन्हें उपयोग नामक पर्याय के विशेषण समझ लेते हैं; जबकि वे विशेषण हैं त्रिकाली ध्रुव आत्मा के। इसके बाद १९२वीं गाथा की टीका में पथिक और छाया के उदाहरण द्वारा यह समझाया गया है कि जिसप्रकार अनेक वृक्षों की छाया थोड़े समय के लिए पथिक के संसर्ग में आती है; उसीप्रकार ये धनादिक अध्रुव पदार्थ भी पुण्य के संयोग से हमें थोड़े समय के लिए ही मिले हैं। बीसवाँ प्रवचन ३१७ पहले के जमाने में जब लोग पैदल चलते थे, उस समय सड़क के दोनों ओर वृक्ष लगाए जाते थे। उन वृक्षों को लगाने के दो उद्देश्य होते थे। प्रथम उद्देश्य तो सड़क की सुरक्षा का है। सड़क की सुरक्षा का उद्देश्य इसप्रकार है - बरसात में पानी बहने से सड़क कट जाती है। यदि सड़क के किनारे पर दोनों ओर वृक्ष लगा दिए जाए, तो वृक्षों की जड़े फैल जाने से वे जड़ें सड़क की मिट्टी रोक लेती हैं; इसलिए सड़क सुरक्षित रहती थी। दूसरा उद्देश्य पैदल चलनेवालों को छाया प्रदान करने का है; क्योंकि पुराने जमाने में लोग पैदल या बैलगाड़ी, घोड़े आदि पर चलते थे। उनको पूरे रास्ते भर धूप ही धूप न लगे अर्थात् थोड़ी धूप व थोड़ी छाया रहे; ताकि वे अपना रास्ता बिना थके पार कर सके। आचार्य अमृतचन्द्र के लिए यह उदाहरण अनुभूत प्रयोग था। वे नंगे पैर पैदल चलते थे तथा नंगे पैर चलनेवालों को धूप से गर्म जमीन और वृक्षों की छायावाली ठण्डी जमीन का बहुत अच्छा अनुभव होता है। पूर्वोक्त उदाहरण में आचार्य अमृतचन्द्र यह कह रहे हैं कि यदि किसी व्यक्ति को अपने लक्ष्य पर जल्दी से जल्दी पहुँचना है तो वह छाया का लोभ नहीं करेगा। वह धूप में जिस तेजी से चलता था, उसी तेजी से छाया में भी चलेगा। जिसप्रकार उन वृक्षों की वह छाया पथिक के साथ क्षणिक संयोग में आती है तथा वृक्षों के निकल जाने के बाद पथिक उसका विकल्प भी नहीं करता है। उसीप्रकार यह आत्मा तो अनादि-अनंत अपने रास्ते पर चल रहा है, उसके रास्ते में आनेवाले वे संयोग छाया के समान हैं अर्थात् स्त्री, पुत्र, मकान, जायदाद आदि सभी संयोग छाया के समान हैं। जिसप्रकार उस पथिक के माथे पर पड़ने वाली छाया अगले समय बदल जाएगी; क्योंकि अगले पल अगले वृक्ष की छाया होगी। उसीप्रकार ये संयोग भी बदलते रहते हैं अर्थात् कोई भी संयोग पुनः प्राप्त नहीं होता। यहाँ आचार्यदेव इस उदाहरण से यह स्पष्ट कर रहे हैं कि धनादि ____155

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