Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 157
________________ ३१४ प्रवचनसार का सार उसीप्रकार जीव स्त्री-पुत्रादिक को क्या छोड़े? वे तो पुण्य-पाप के साथ बंधे हुए हैं। यदि पुण्य-पाप का उदय है, तो वे जीव के साथ रहेंगे और यदि पुण्य-पाप नहीं रहेंगे तो एक क्षण में ही चले जाएंगे। इसलिए स्त्री-पुत्रादिक को नहीं छोड़ना है; अपितु उनके प्रति ममत्व छोड़ना है, राग छोड़ना है। अब यदि कोई कहे कि जैसे स्त्री-पुत्रादिक जीव के नहीं हैं; वैसे ही ममत्व भी जीव का नहीं है। अरे भाई ! अध्यात्म के जोर में हम लोग ऐसा ही कह देते हैं; किन्तु राग और आत्मा में व मकान और आत्मा में एक-सा अंतर नहीं है। प्रवचनसार ग्रंथ में कहा जाय तो राग का जीव के साथ अतद्भाव नाम का अभाव है और मकान के साथ आत्मा का अत्यन्ताभाव नाम का अभाव है। हमने इन दोनों में अंतर नहीं समझा। पर को छोडना और ग्रहण करना तो नाममात्र का ग्रहण करना और छोड़ना है क्योंकि आत्मा के पर का ग्रहण और त्याग होता ही नहीं; उन्हें तो मात्र अपना मानना छोड़ना है; राग-द्वेष-मोह तो वास्तव में छोड़ना है; क्योंकि वे आत्मा में अत्दभावरूप से विद्यमान हैं। पर तो आत्मा के हैं ही नहीं; इसलिए पर को अशुद्धद्रव्य कहकर अशुद्धनय का विषय कहा तथा इसी कथन की अपेक्षा राग को शुद्धनिश्चयनय का विषय कहा। तदनन्तर इसी संदर्भ में गाथा १९१ की टीका भी द्रष्टव्य है - "जो आत्मा, मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्धद्रव्य निरूपणात्मक (अशुद्धद्रव्य के निरूपण स्वरूप) व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है - ऐसा होता हुआ, “मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं" इसप्रकार स्व-पर के परस्पर स्व-स्वामी सम्बन्ध को छोड़कर, 'शुद्धज्ञान ही एक मैं हूँ' इसप्रकार अनात्मा को छोड़कर, आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करके, परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप ही एक अग्र में चिन्ता को रोकता है, वह एकाग्रचिन्तानिरोधक (एक विषय बीसवाँ प्रवचन में विचार को रोकनेवाला आत्मा) उस एकाग्रचिन्ता निरोध के समय वास्तव में शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है।" टीका में पंक्ति में जो यह लिखा है कि वास्तव में शुद्धात्मा होता है', तो इससे अर्थ यह निकलता है कि पहले वास्तव में शुद्धात्मा नहीं था। अरे भाई! ऐसा नहीं है। यह वास्तव' शब्द संस्कृत के 'साक्षात्' शब्द का हिन्दी अनुवाद है। नयों में एक साक्षात्शुद्धनिश्चयनय है, उसका अर्थ यह है केवलज्ञानादि से सहित आत्मा को विषय बनाना। 'साक्षात्' शब्द का प्रयोग पर्याय से भी शुद्ध हो जाने के लिए होता है। वास्तव में अभी आत्मा स्वभाव से शुद्ध है और बाद में पर्याय से शुद्ध होगा। आचार्यदेव पर्याय से भी शुद्ध होने को साक्षात् शुद्ध होना कहते हैं। इससे हमें यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि अभी आत्मा स्वभाव से शुद्ध है। यहाँ वास्तव में शुद्धात्मा होता है' का तात्पर्य मात्र इतना है कि पर्याय में भी स्वभाव की तरह शुद्धता प्रकट होती है। अब, 'ध्रुवत्व के कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य है' ऐसा उपदेश करनेवाली गाथा १९२ इसप्रकार है एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं । धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं ।।१९२।। (हरिगीत) इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी। ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ।।१९२।। मैं आत्मा को इसप्रकार ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय महापदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध मानता हूँ। गाथा में आत्मा के लिए ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय, महापदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध - इन विशेषणों का प्रयोग किया गया है। शास्त्रों में अधिकांश जगह ऐसे कथन आते हैं, जिनमें हम द्रव्य (आत्मा) और पर्याय के विशेषणों में भेद नहीं कर पाते हैं। यदि पर्याय 154

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