Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 156
________________ ३१२ प्रवचनसार का सार भावनारूप जो राग होता है, उसे भी दुनिया में ममत्व कहा जाता है। राग-द्वेष-मोह आदि अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा के कहे जाते हैं तथा अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। ___अरे भाई ! 'रागादिक जीव ने किये हैं' यदि इस कथन को अशुद्धनिश्चयनय का कहेंगे, तब अशुद्धनिश्चयनय तो व्यवहार होता है एवं व्यवहार असत्यार्थ होता है; इसलिए वह जीव ऐसा मानेगा ही नहीं कि रागादि मैंने किये हैं, तथा वह रागादिक त्यागने की जिम्मेदारी भी महसूस नहीं करेगा; वह अपने अन्दर रागादिक होने की अपराधवृत्ति को स्वीकार ही नहीं करेगा। इसलिए आचार्य ने उन्हें शुद्धनिश्चयनय से कह दिया है। 'शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है' - यह कथन करनेवाली अगली १९१वीं गाथा इसप्रकार है - णाहं होमि परेसिंण मे परे संति णाणमहमेक्को । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पा णं हवदि झादा ।।१९१ ।। (हरिगीत ) पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानातमा । जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धातमा ।।१९१।। 'मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं, मैं एक ज्ञान हूँ' - इसप्रकार जो ध्यान करता है, वह ध्याता ध्यानकाल में आत्मा होता है। यदि कोई यह कहे कि जो देह-धनादिक को पर मानता है तथा निज शुद्धात्मा को अपना मानकर उसका ध्यान करता है, वही शुद्धात्मा का ध्याता है - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने यहाँ रागादिक की बात नहीं की। अरे भाई ! 'देह-धनादिक के प्रति ममत्व छोड़ता है' यह कहकर ममत्व छोड़ने की बात कही है, ममत्व रखने की बात नहीं कही है। __ स्त्री-पुत्र-धन तो जीव के नहीं हैं; क्योंकि ये असद्भूत हैं। स्त्रीपुत्रादि तो कभी जीव के हुए ही नहीं हैं, मिथ्यात्व की वजह से जीव उन्हें अपना मानता है। यदि मिथ्यात्व और राग छूट जाएगा, तो स्त्रीपुत्रादि अपने आप ही छूट जाएंगे। वास्तव में उनको नहीं छोड़ना है, बीसवाँ प्रवचन ३१३ अपितु उन्हें अपना मानना छोड़ना है तथा यह भी करना है कि जो राग अपनी पर्याय में पैदा हो रहा है, वह पैदा न हो। __स्त्री-पुत्रादिक में एकत्व-ममत्व छोड़ना है' इससे यह भी सिद्ध होता है कि एकत्व-ममत्व भी छोड़ना है। अरे भाई ! यहाँ छोड़ने की बात तो एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व की ही है। पर का कर्ता तो आत्मा कभी हुआ ही नहीं है, आत्मा रागादि का कर्ता है; इसलिए वास्तव में रागादिक ही छोड़ना है, स्त्री-पुत्रादिक का छोड़ना तो औपचारिक है। __एक आदमी को किसी दूसरे आदमी से १ लाख रुपए लेने थे; लेकिन देनेवाले की स्थिति अत्यंत खराब हो गई और वह देने में असमर्थ हो गया। लेनेवाले आदमी ने बहुत दबाव डाला; फिर भी पैसे नहीं मिले, तो उसने पंचायत बुलाई। अंत में कर्जदार आदमी उससे कहता है कि मेरे पास सिर्फ दस हजार रुपए हैं, यदि आप ये लेना चाहो तो ले लो; इससे ज्यादा पैसे मेरे पास हैं ही नहीं। पर ध्यान रखने की बात यह है कि यदि आप ये भी ले लोगे तो मेरे बाल-बच्चे भूखों मर जाएंगे। आप मान नहीं रहे हो एवं मेरी जान पे पड़ गई है, इसलिए जान छुड़ाने के लिए ये देने को तैयार हूँ। __अब यदि वह लेनेवाला आदमी यह कहता है कि मैंने तुम्हारे ९० हजार छोड़े और ये १० हजार रुपए मुझे दे दो। फिर भी यदि वह १० हजार रुपए ले लेता है, तब मैं आपसे पूछता हैं कि क्या वास्तव में उसने ९० हजार रुपए छोड़े हैं ? अरे भाई ! ९० हजार रुपए तो उसे किसी कीमत पर मिलनेवाले ही नहीं हैं; उन ९० हजार को छोड़ने की बात ही क्या ? ___यदि वह १० हजार रुपए छोड़ता है तो हम कह सकते हैं कि उसने १० हजार रुपए छोड़े। यदि उस लेनेवाले को इतना भरोसा होता कि इस आदमी का कुछ सामान बेचकर ९० हजार रुपए मिल सकते हैं, तो वह ऐसा भी प्रयास करता; किन्तु उसने जब यह देख लिया कि इसके पास कुछ भी नहीं है, तो वह ९० हजार रुपए छोड़ने का दम्भ भरने लगता है। 153

Loading...

Page Navigation
1 ... 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203