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प्रवचनसार का सार
३०६ शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्गल परिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं।
वह इसप्रकार है कि जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप परिणमित होता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता (छत्ता) और इन्द्रगोप (चातुर्मास में उत्पन्न लाल कीड़ा) आदिरूप परिणमित होता है; इसीप्रकार जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है, तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं।"
इसी बात को समझाने के लिए टीका में यह उदाहरण दिया है कि जब नये मेघों का जल भूमि से संयोग में आता है; तब अजीव बीज फलने-फूलने लगते हैं, घास उग आती है, कड़वे-मीठे-कषायले-चरपरे रसवाले सभी प्रकार के पेड़-पौधे उगने लगते हैं।
उन बीजों को किसी ने कुछ भी नहीं किया है, आठ महीने से वे वैसे ही पड़े थे; किन्तु नये मेघजल का संयोग मिलते ही वे पुद्गल स्वयमेव वैचित्र्य को प्राप्त होते हैं। ठीक उसीप्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणामों के समय कर्मपुद्गल परिणाम स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं। ____ मैंने यह भी देखा है कि जबतक तालाब में पानी भरा रहता है, तबतक मेढक टर्राते रहते हैं; लेकिन जब धीरे-धीरे पानी सूख जाता है तो वे उसी मिट्टी में दब जाते हैं तथा आठ महीने मिट्टी में वैसे ही दबे रहते हैं। वे जिन्दा रहते हैं या मर जाते हैं - इस संबंध में तो मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है; लेकिन जब पहली बरसात होती है, तो तालाब भरते ही मेढ़कों की टर्र-टर्र की आवाज आने लगती है।
अब यदि वे मेढ़क पैदा हुए हैं, तो उन्हें पैदा होने में कुछ समय तो लगना ही चाहिए; लेकिन वे पानी बरसने के घंटे-दो घंटे बाद ही बोलने लगते हैं। इसमें या तो यह हो सकता है कि वे आठ महीने से दबे रहने के
उन्नीसवाँ प्रवचन बाद भी जिन्दा रहे हों और पानी मिलते ही बाहर आकर टर्राने लगे हो। अथवा यह हो सकता है कि वे उस समय मर गए हो और उनके शरीर सुरक्षित रहे हों तथा बरसात होते ही उनमें नये जीव आ गए हों और वे टर्राने लगे हों। कुछ भी हो मैं तो यहाँ यह बताना चाहता हूँ कि यह सब परिवर्तन नये मेघजल के संयोग से स्वयं होता है।
जिसप्रकार नये मेघजल से यह परिवर्तन स्वयं ही होते हैं; उसीप्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्गल परिणाम स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं।
यहाँ आचार्यदेव यह स्पष्ट कर रहे हैं कि यदि कोई मोह-राग-द्वेष के भाव करेगा तो कार्माण वर्गणाएँ ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित होकर उसके साथ एकक्षेत्रावगाह हो ही जाएगी। जो भी कर्मों का बंध होता है; वह मोह-राग-द्वेष के कारण होता है। कर्मों का बंध न तो पर को जानने के कारण होता है और न ही पर के कारण होता है। इसके बाद गाथा १८८ देखिए -
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ।।१८८ ।।
(हरिगीत) सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत ।
हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा ।।१८८।। प्रदेश युक्त वह आत्मा यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से लिप्त या बद्ध होता हुआ बंध' कहा गया है।
इस गाथा का अर्थ करते हुए टीका में लिखा है कि जिसप्रकार जगत में वस्त्र सप्रदेश होने से लोध, फिटकरी आदि से कषायित होता है; जिससे वह मजीठादि के रंग से संबद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है; इसीप्रकार आत्मा भी सप्रदेश होने से यथाकाल मोहराग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज के द्वारा श्लिष्ट होता हुआ
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