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प्रवचनसार का सार उपयोग दर्शन-ज्ञान है। फिर आत्मा के उपयोग को शुभ और अशुभ रूप कहकर चारित्र वाले उपयोग को ग्रहण कर लिया।
आचार्यदेव ने उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन से बात प्रारंभ की और शुभ और अशुभ उपयोग की बात ले ली कि शुभ और अशुभ उपयोग के कारण कर्म का बंध हुआ और उनके उदय से शरीर का संयोग मिला - इसप्रकार आत्मा और पुद्गलों का संगठन हो गया।
इसप्रकार आचार्य असमानजातीयद्रव्यपर्याय होने के लिए उपयोग को कारण कहते हैं। आकाश द्रव्य में उपयोग नहीं है; इसलिए उसे बंधन नहीं हुआ। धर्म, अधर्म, आकाश और काल में भी उपयोग नहीं है; इसलिए उन्हें भी बंधन नहीं हुआ। पुद्गल यद्यपि स्कन्धरूप परिणमित होकर जीव के साथ बंधन में हो जाता है; लेकिन उसे इस बंधन से सुख-दु:ख नहीं होता है; क्योंकि उसमें सुख नाम का गुण ही नहीं है; किन्तु आत्मा में उपयोग अर्थात् ज्ञान, दर्शन तथा श्रद्धा नामक गुण भी है। आत्मा ज्ञान गुण से पर को जान लेता है, श्रद्धा गुण से अपना मान लेता है और चारित्र नामक गुण से उसमें जम जाता है, रम जाता है और बंधन में पड़ जाता है।
इस कथन का विश्लेषण करनेवाली टीका का भाव इसप्रकार है -
“वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष है। प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है; क्योंकि वह चैतन्यानुविधायी (उपयोग चैतन्य का अनुसरण करके होनेवाला) परिणाम है और वह उपयोग ज्ञान तथा दर्शन है; क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार ऐसा उभयरूप है।
इस उपयोग के शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो भेद किये गये हैं। उसमें,शुद्ध उपयोग निरूपराग (निर्विकार) है और अशुद्ध उपयोग सोपराग (सविकार) है। और वह अशुद्ध उपयोग शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार का है; क्योंकि उपराग विशुद्धिरूप और संक्लेशरूप - ऐसा दो प्रकार का है।"
सत्रहवाँ प्रवचन
२६३ टीका में चैतन्य को साकार से युक्त बताया है और साकार का अर्थ विकल्प होता है अर्थात् विकल्प तो ज्ञान का स्वभाव है। जो निर्विकल्पता के नाम पर ज्ञानात्मक विकल्प को निकालना चाहते हैं; वे अज्ञानी हैं। हमने पूर्व में भी यह पढा है कि अर्थविकल्पात्मकं ज्ञानम् यहाँ अर्थ का अर्थ तो स्व और पर सभी पदार्थ है और विकल्प का अर्थ है, उनके बीच भेद को जानना । जहाँ भी विकल्प का निषेध है, वहाँ रागात्मक विकल्प का निषेध है, और जहाँ जानने का निषेध प्रतीत होता है, वहाँ पर पर को 'ये मैं हूँ इस रूप अपना जानने का निषेध है; लेकिन जहाँ ज्ञान का स्वरूप ही विकल्प है, उसका निषेध कैसे हो ? इसप्रकार टीका में चैतन्य को साकार एवं निराकार कहकर उसके स्वभाव की चर्चा की।
इसप्रकार इस गाथा की टीका में इस बात का स्पष्टीकरण किया है कि शरीरादि के संयोग का कारण ज्ञानात्मक उपयोग न होकर; अपितु शुभ और अशुभ नामक जो अशुद्धोपयोग है; वह है।
तदनन्तर कौन-सा उपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण है - यह दर्शानेवाली १५६वीं गाथा इसप्रकार है -
उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमस्थि ।।१५६ ।।
(हरिगीत) उपयोग हो शुभ पुण्यसंचय अशुभ हो तो पाप का।
शुभ-अशुभ दोनों ही न हो तो कर्म का बंधन न हो ।।१५६।। उपयोग यदि शुभ हो तो जीव के पुण्य संचय होता है और यदि अशुभ हो तो पाप संचय का होता है। उन दोनों के अभाव में बंध का अभाव होता है।
इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जब शुभोपयोग होता है तो पुण्यबंध होता है और जब अशुभोपयोग होता है तो पापबंध होता है एवं जब दोनों का अभाव होता है, तब न पुण्यबंध होता है और न पापबंध होता है; अपितु बंध का अभाव होता है।
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