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प्रवचनसार का सार
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आत्मा पुद्गलपिंड को कर्मरूप नहीं करता - यह बतानेवाली १६९वीं गाथा इसप्रकार है -
कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा । गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ।।१६९।।
(हरिगीत) स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति ।
पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें ।।१६९।। कर्मत्व के योग्य स्कन्ध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्मभाव को प्राप्त होते हैं; जीव उनको नहीं परिणमाता।
आचार्य अमृतचन्द्र ने इसी गाथा की टीका को आधार बनाकर पुरुषार्थसिद्धयुपाय में निम्न आर्या छंद लिखे हैं -
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपिस्वकैभावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।।'
जीव के किये हुए रागादि परिणामों को निमित्तमात्र पाकर जीव से भिन्न अन्य पुद्गल स्कन्ध अपने आप ही ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। निश्चय से अपने चेतनास्वरूप रागादि परिणामों से स्वयं ही परिणमन करते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल सम्बन्धी ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म निमित्तमात्र होता है। ___“जीव ने ही ऐसे खोटे भाव करके कर्म बाँधे हैं और इन कर्मों को जीव ने निमन्त्रण दिया है, ये कर्म बिना बुलाए नहीं आए हैं; इसलिए इन कर्मों के फल का दण्ड तो जीव को भुगतना ही पड़ेगा।"
उक्त विचारों के विरुद्ध आचार्यदेव यहाँ यह कह रहे हैं कि ये कर्म जीव ने नहीं बाँधे; जीव ने तो मात्र इतनी-सी गलती की थी कि वह १. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, छन्द १२-१३
सत्रहवाँ प्रवचन
२७१ स्वयं को भूल गया और उसके ज्ञान में जो परपदार्थ आए, उन पदार्थों को अपना मान लिया । जीव की एकमात्र इस गलती का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणाएं स्वयं ही कर्मरूप परिणमित होकर जीव के साथ एकक्षेत्रावगाही हो गई हैं।
एक बूढी अंधी महिला सड़क पार कर रही थी। यह किसी वाहन के नीचे न आ जाय'; इस विकल्प से उसके पास जाकर एक आदमी ने उसकी लकड़ी पकड़ ली और कहा -
"अम्मा! मैं तुम्हें सड़क पार करा देता हूँ।" सड़क पार करते समय वह आदमी बोला - "अम्मा ! क्या तुम्हारा कोई बेटा नहीं है ?" अम्मा बोली – “कौन कहता है कि मेरे बेटा नहीं है?"
वह आदमी बोला - “जब तुम्हारा बेटा है, तो फिर तुम अकेली सड़क पार क्यों करती हो? इस भरी सड़क पर कहीं अनर्थ हो गया तो ? क्या तुम्हारा बेटा तुम्हें सड़क पार नहीं करा सकता?"
इतना सुनकर अम्मा बोली - "करा रहा है न ! अरे, बेटा ! जो मुझे सड़क पार करा रहा है, वही मेरा बेटा है।"
जिसप्रकार उस व्यक्ति ने दया की दृष्टि से उस अम्मा को सड़क पार कराई तो उस अम्मा ने उसी को अपना बेटा बना लिया।
उसीप्रकार जो आसपास के ज्ञेय हमारे ज्ञान के ज्ञेय बने, उनको हमने अपनेपन से या प्रेम से देखा तो ये कार्माण वर्गणाएँ हमसे चिवट गईं। ध्यान रखने की बात यह है कि उनका संबंध हमसे तभी हुआ, जब हमने उन्हें अपनेपन की निगाह से देखा।
इसप्रकार जीव के भावों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणा कर्मरूप परिणमित होकर जीव के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप हो जाती हैं।
१६९वीं गाथा की टीका में जो बात कही गई, उसका भाव इसप्रकार है - यद्यपि जीव उनको परिणमानेवाला नहीं है; तथापि कर्मरूप
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