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उन्नीसवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में समागत ज्ञेयज्ञानविभागाधिकार पर चर्चा चल रही है। प्रवचनसार गाथा १७३ में यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि मूर्त पुद्गल तो रूपादिगुणयुक्त होने से परस्पर बंधयोग्य स्पर्शों से बंधते हैं; परन्तु उससे विपरीत अमूर्त आत्मा पौद्गलिक कर्मों को कैसे बाँधता है ?
यदि यह कहें कि आत्मा पर से बंधा नहीं है, वह स्वयं से स्वयं ही बंधा है तो अपने में अपना बंध कैसे हो सकता है ? क्योंकि बंध के लिए कम से दो तो होना ही चाहिए।
इस प्रश्न के उत्तर के लिए गाथा १७५ की टीका द्रष्टव्य है -
"प्रथम तो यह आत्मा उपयोगमय है; क्योंकि यह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासरूप है अर्थात् ज्ञान-दर्शन स्वरूप है। ___उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है; वह आत्मा - काला, पीला
और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और लालपन के द्वारा उपरक्त स्वभाववाले स्फटिकमणि की भाँति - पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और द्वेष के द्वारा उपरक्त विकारी, मलिन, कलुषित आत्मस्वभाववाला होने से, स्वयं अकेला ही बंधरूप है; क्योंकि मोहराग-द्वेषादि भाव उसका द्वितीय है।"
इस टीका में यह कहा गया है कि प्रत्येक आत्मा उपयोगमय है। उपयोग सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का है । दर्शनोपयोग को निर्विकल्प उपयोग कहते हैं और ज्ञानोपयोग को सविकल्प उपयोग कहते हैं। इसप्रकार ज्ञान का स्वरूप ही विकल्पात्मक है तथा जो स्वरूप होता है, उसका कभी निषेध नहीं होता है। अतः जब हम निर्विकल्प
उन्नीसवाँ प्रवचन
२९५ अनुभूति की बात करते हैं; तब ज्ञानात्मक विकल्पों का निषेध नहीं होता, रागात्मक विकल्पों का ही निषेध होता है। ज्ञान का स्वरूप विकल्पात्मक है; अत: वह तो आत्मा में सदा रहेगा ही।
बन्ध तो दो के बीच होता है, अकेला आत्मा बंधस्वरूप कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर इस टीका में इसप्रकार दिया है कि आत्मा को बंधने के लिए कोई दूसरा चाहिए तो वह दूसरा मोह-राग-द्वेषरूप भाव है। इसप्रकार मोह-राग-द्वेषादि भाव के द्वारा मलिन स्वभाववाला आत्मा स्वयं ही भावबंध है।
यह बात समझाने के लिए टीका में स्फटिक मणि का उदाहरण दिया है कि जिसप्रकार स्फटिक मणि में जिस रंग की डाँक लग जाय, वह उसी रंग का हो जाता है। ___ध्यान रहे वह स्फटिकमणि उस डाँक की वजह से रंगीन नहीं हुआ; अपितु स्फटिकमणि का ही ऐसा स्वभाव है कि उसमें जिस रंग की डाँक लगे, वह उसीरूप हो जाता है। तात्पर्य यह है कि स्फटिकमणि में डाँक ने कुछ कर दिया - ऐसा नहीं समझना ।
उसीप्रकार आत्मा में परपदार्थ झलकते हैं और उन परपदार्थों के लक्ष्य से राग-द्वेष होता है और उन राग-द्वेष में पुराने कर्मों का उदय भी निमित्त है और परपदार्थ भी निमित्त हैं। अन्तरंग निमित्त तो पुराने कर्मों का उदय है और बाह्य निमित्त परपदार्थ हैं।
अरे भाई। संसारावस्था में अज्ञानदशा में जीव का मोह-राग-द्वेष करने का स्वभाव है, जिसे वैभाविक शक्ति कहते हैं। वैभाविक शक्ति के कारण जीव मोह-राग-द्वेषरूप परिणमता है। ___ महिला की संगमरमर की नग्न मूर्ति को देखकर किसी व्यक्ति को मोह-राग-द्वेष होता है और किसी अन्य व्यक्ति को नहीं होता है; इससे सिद्ध होता है कि उस मूर्ति ने कुछ नहीं किया। उदाहरण में अजीव संगमरमर की मूर्ति की बात इसलिए की; क्योंकि यदि चेतन स्त्री हो, तो
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