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प्रवचनसार का सार उसीप्रकार ज्ञान तो ज्ञान होता है, वह इन्द्रिय या अतीन्द्रिय नहीं होता है; किन्तु जिस ज्ञान का उपयोग इन्द्रियों के माध्यम से हुआ, उस ज्ञान को इन्द्रिय ज्ञान नाम दे दिया और जो ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से नहीं हुआ, उस ज्ञान को अतीन्द्रिय नाम दे दिया।
इसप्रकार इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान - ज्ञान के ये भेद इन्द्रियों की अपेक्षा ही किये गये हैं। इन्द्रियज्ञान में तो इन्द्रिय की अपेक्षा है ही; किन्तु अतीन्द्रियज्ञान में भी इन्द्रिय के अभाव की अपेक्षा ही मुख्य रही है। वास्तव में तो ज्ञान को अतीन्द्रिय विशेषण देने का कोई मतलब ही नहीं है; क्योंकि ज्ञान तो ज्ञान है। उसे आत्मोत्थ ज्ञान कहें तब भी ठीक है; लेकिन अतीन्द्रियज्ञान कहने में तो स्पष्ट ही इन्द्रिय की अपेक्षा है। इन्द्रियज्ञान में इन्द्रियों की सकारात्मक अपेक्षा है और अतीन्द्रियज्ञान में इन्द्रियों की नकारात्मक अपेक्षा है।
'चश्मे से देखनेवाला' यह कहना तो किसी अपेक्षा उचित माना जा सकता है; किन्तु बिना चश्मे से देखनेवाले को बिना चश्मेवाला कहने की क्या जरूरत है ? उसके स्थान पर मात्र ऐसा कहना चाहिए कि देखनेवाला । सीधा देखनेवाले में चश्मे की अपेक्षा क्यों हो ? इसीप्रकार जब ज्ञान सीधे ही आत्मा को जान रहा है, तो उस ज्ञान को अतीन्द्रिय कहकर इन्द्रियों को बीच में लाने की जरूरत ही क्या है ?
यदि कोई कहे कि ज्ञान का अतीन्द्रिय विशेषण तो आचार्यों ने लगाया है, उन्हीं ने अतीन्द्रियज्ञान शब्द का प्रयोग किया है।
अरे भाई! हम लोगों ने आजतक इन्द्रियों के माध्यम से ही देखाजाना है और पुद्गल को ही देखा-जाना है; इसकारण हमने इन्द्रिय के माध्यम से होनेवाले ज्ञान को ही ज्ञान समझ लिया है। इन्द्रियों के बिना भी देखा-जाना जा सकता है - यह बात हमारी कल्पना में भी नहीं आई; इसलिए आचार्यों ने ज्ञान को अतीन्द्रिय विशेषण लगाकर समझाया है।
आचार्यों ने तो यह अपेक्षा हमें समझाने के लिए लगाई है; किन्तु
अठारहवाँ प्रवचन
२८१ जिन्हें अतीन्द्रियज्ञान है, उन्हें तो ऐसी कोई अपेक्षा ही नहीं है। जिसप्रकार इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है; उसीप्रकार अतीन्द्रियज्ञान भी ज्ञान नहीं है। ज्ञान तो मात्र ज्ञान है, वह न तो इन्द्रिय है और न ही अतीन्द्रिय ।
इस संबंध में समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार की वे गाथाएँ भी ध्यान से पढने योग्य हैं; जिनमें यह कहा गया है कि कलई दीवार की नहीं, अपितु कलई कलई की है। वहाँ आचार्य कहते हैं कि दीवाल पर जो कलई पुती हुई है, वह कलई दीवाल की नहीं है; क्योंकि दीवाल जुदी है और कलई जुदी है। दीवाल के परमाणु और प्रदेश अलग हैं और कलई के परमाणु और प्रदेश अलग हैं, उन दोनों में परस्पर अत्यंताभाव है। कलई को दीवाल की कहना - यह व्यवहार है। ऐसा भी नहीं कह सकते हैं कि कलई है ही नहीं; क्योंकि कलई उस दीवाल पर पुती हुई है, लिपटी हुई है।
दीवाल पर कलई तो दिख रही है; किन्तु पीछे की दीवाल नहीं दिख रही है। उस दीवाल में जो सीमेन्ट, कांक्रीट, चूना व पत्थर लगा है, वह नहीं दिख रहा है; किन्तु यह संयोगरूप कलई दिख रही है; इसलिए इस संयोग का ज्ञान कराने के लिए यह कह दिया जाता है कि दीवाल सफेद है; लेकिन ऐसा कहना व्यवहार है; क्योंकि सफेद तो कलई है, दीवार नहीं।
- इसके बाद वही पर आचार्य कहते हैं कि कलई कलई की है और दीवाल दीवाल की है। इस संबंध में मेरा कहना यह है कि वहाँ पर एक कलई के अलावा दूसरी कलई कौन-सी है ? वास्तव में दूसरी कलई तो है ही नहीं, एक ही कलई है।
अरे भाई। जिसका कोई दूसरा भाई न हो और वह यह कहे कि मैं ही मेरा भाई हैं, तो वास्तव में वे कोई दो अलग-अलग व्यक्ति नहीं है, एक ही व्यक्ति है। इसीप्रकार कलई तो एक ही है; लेकिन कलई कलई की है -ऐसा कहकर एक ही वस्तु में दो भेद किए गए हैं। दीवाल की कलई - ऐसा कहना असद्भूतव्यवहार है और कलई की कलई - ऐसा कहना सद्भूतव्यवहार है। स्वयं में ही भेद करना भेदव्यवहार अर्थात् सद्भूतव्यवहार है।
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