Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 144
________________ प्रवचनसार का सार २८८ मैं आपको नमस्कार करूँ तो आप मुझे बुलाकर अपने रथ में दो मिनिट के लिए बिठा लेना और मेरी पीठ ठोकना तथा मुझसे दो बातें पूछना । मैं तो बस आपकी इतनी ही कृपादृष्टि चाहता हूँ; मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" जब राजाजी की सवारी निकली, तो पूरे गाँव ने राजाजी को खबासजी से प्रेम से बोलते हुए और उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए देखा। अब वह सभी से यह कहता कि मैं राजाजी से तुम्हारा यह काम निकलवा सकता हूँ। यदि कोई उसे काम नहीं बताता, तब वह यह कहता कि राजाजी की दृष्टि तुम्हारे मकान पर है, आज उन्होंने तुम्हारे मकान का यह हिस्सा तोड़ने को कहा है, मैं चाहूँ तो तुम्हारा मकान बचा सकता हूँ। - इसप्रकार खबासजी ने राजा की कृपादृष्टि से लोगों को ठगना शुरू कर दिया और खबासजी की कोठी भी बन गई। जयपुर में खबासजी का रास्ता भी बन गया; जो आज भी उसी नाम से जाना जाता है। इसीप्रकार आत्माराम राजाजी ने शरीर के साथ संयोग किया और शरीर को ही अपना मान लिया । यही इसके बंधन का कारण बन गया। मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं। तत्विपरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं ।।१७३।। (हरिगीत ) मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से। अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किसतरह ।।१७३।। मूर्त पुद्गल तो रूपादिगुणयुक्त होने से परस्पर स्पर्शों से बंधते हैं; परन्तु उससे विपरीत अमूर्त आत्मा पौद्गलिक कर्म को कैसे बाँधता है? यहाँ पर आश्चर्य प्रगट करते हुए यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि पुद्गल तो मूर्तिक है, रूपादि गुणोंवाला है और भगवान आत्मा उससे रहित है; तब यह आत्मा पुद्गल कर्मों से किसप्रकार बंध गया ? __इसके पूर्व की गाथा में भी यही कहा था कि शरीर स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाला है तथा आत्मा चेतन तत्त्व है। जब जीव और पुद्गल अठारहवाँ प्रवचन दोनों जुदे-जुदे पदार्थ हैं और दोनों में अत्यन्ताभाव है, तब फिर इन दोनों का संयोग कैसे हो गया ? अरे भाई! आत्मा ने शरीर को जाना और मिथ्यात्व के कारण उसे अपना मान लिया और बंधन में पड़ गया। आत्मा अमूर्त होने पर भी उसको किसप्रकार बंध होता है ? - यह निश्चय करानेवाली १७४वीं गाथा इसप्रकार है - रूवादिएहिरहिदो पेच्छदि जाणादिरूवमादीणि । दव्वाणि गुणे यजधा तह बंधो तेण जाणीहि ।।१७४।। (हरिगीत) जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को। बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को ।।१७४।। जिसप्रकार रूपादिरहित जीव रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों को देखता और जानता है; उसीप्रकार अरूपी का रूपी के साथ बंधन होता है- ऐसा जानो। ___इस गाथा में आचार्य ने जानने को उदाहरण बनाया और बंधने को सिद्धांत बनाया। आचार्यदेव कहते हैं कि जिसप्रकार अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक द्रव्यों को जानता है; उसीप्रकार अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक द्रव्यों से बंध को प्राप्त होता है। इसीलिए आचार्यदेव ने पर को जानने व बंधने - इन दोनों को एक ही नय में रखा है। मैं पर से बंधा हूँ, मैं पर का कर्ता हूँ और मैं पर को जानता हूँ - ये सभी कथन असद्भूतव्यवहारनय के हैं। गाथार्थ को स्पष्ट करनेवाली टीका इसप्रकार है "जैसे रूपादिरहित जीव रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखताजानता है; उसीप्रकार रूपादिरहित जीव रूपी कर्म पुद्गलों के साथ बँधता है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो देखने-जानने के संबंध में भी यह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता-जानता है ? 141

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