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प्रवचनसार का सार जैसा कि हम सब जानते हैं कि पहले सबकुछ मौखिक ही चलता था; बाद में उसी विषय-वस्तु को लिखितरूप में व्यवस्थित किया गया । आचार्यों को जो गाथाएं याद थीं, उन्हीं गाथाओं को लिखितरूप में व्यवस्थित करके प्रस्तुत कर दी गईं।
यद्यपि आज भी ऐसा चलता है; तथापि इतना अन्तर है कि आज प्राचीन विषय-वस्तु को उद्धरण के रूप में प्रस्तत किया जाता है। पहले यह सब इसलिए संभव नहीं था कि यदि एक ग्रन्थ की दो सौ प्रतियाँ हस्तलिखित होंगी, तो उन दो सौ प्रतियों में पृष्ठ संख्या अलग-अलग होगी। ऐसी स्थिति में ग्रन्थों में अन्य ग्रन्थों के कथनों को उद्धत करके लिखना सम्भव ही नहीं था। __इससे भी बड़ी बात यह है कि सभी आचार्यगण यही समझते थे कि यह सब तो भगवान महावीर की वाणी है, इसमें हमारा क्या है ? इसलिए अपने ग्रन्थों को संग्रहरूप में प्रस्तुत करने में उन्हें कोई संकोच नहीं था।
यह भी हो सकता है कि यह गाथा पहले से प्रचलित रही हो, जिसे कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में संग्रह कर लिया हो। कुछ भी हो; यह जैनदर्शन की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मूल गाथा है।
इस गाथा में भी अरस-अरूपादि जो विशेषण दिये गये हैं; उनसे भी यही प्रतीत होता है कि वे यहाँ मनुष्यादिरूप असमानजातीयद्रव्यपर्याय से ही भेदविज्ञान करने की बात कर रहे हैं। वे देहदेवल में विराजमान, किन्तु देह से भी भिन्न भगवान आत्मा को पहचानने का असाधारण लक्षण बता रहे हैं।
असाधारण लक्षण वह होता है, जो दूसरों में नहीं पाया जाता । जो गुण दूसरों में नहीं पाये जाये, असाधारण लक्षण में उन्हें ही रखा जाता है। आत्मा के असाधारण धर्म की चर्चा में भी यह बात प्रमुख है कि जिन गुणों से हम आत्मा को पहचान लें, वे आत्मा के असाधारण गुण हैं।
यहाँ पर यह नहीं समझना चाहिए कि असाधारण गुण मुख्य होते
अठारहवाँ प्रवचन हैं, इसलिए उनकी चर्चा कर रहे हैं और बाकी के गुण गौण हैं, इसलिए उनकी चर्चा नहीं कर रहे हैं; अपितु आत्मा को पहचानने में असाधारण गुण सुविधाजनक होते हैं; इसलिए उनका वर्णन किया जा रहा है।
आत्मा रस नहीं है, रूप नहीं है, गंध नहीं है - यह बात तो नकारात्मक हुई। यद्यपि लोक में जुआ नहीं खेलना, माँस-मदिरा का सेवन नहीं करना, हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना इत्यादि नकारात्मक बिन्दुओं को भी गुणों के रूप में देखा जाता है; तथापि सकारात्मक गुणों के बिना नकारात्मक गुणों का ज्यादा महत्त्व नहीं होता।
फिर भी आत्मा को पहिचानने के लिए ये अरस, अरूप, अगंध एवं अशब्द गुण अधिक उपयोगी हैं; क्योंकि रूप-रस-गंध वाले शरीर से आत्मा को भिन्न समझना है।
इस गाथा का सरलार्थ यह है कि जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण, चेतनागुणवाला और अनिर्दिष्ट संस्थानवाला है।
इस गाथा में महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि आजतक हमारे ज्ञान का उपयोग इन्द्रियों के माध्यम से ही होता रहा है; इसकारण वह मात्र पुद्गलों को ही जानता रहा है; क्योंकि इन्द्रियाँ रूपादि विषयों की ही ग्राहक हैं और रूपादिक विषय पुद्गलमयी हैं। ___ इसप्रकार यहाँ दो बातें कही, प्रथम तो यह कि शरीर जीव नहीं है
और दूसरी यह कि जीव शरीर की अंगभूत जिन इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान का उपयोग कर रहा है; उनसे भगवान आत्मा समझ में नहीं आएगा; क्योंकि इन्द्रियाँ जिन चीजों के जानने में निमित्त हैं, वे रूपादि गुण आत्मा में हैं ही नहीं।
इन्द्रियज्ञान - इस पद में इन्द्रिय को ज्ञान का विशेषण बना दिया गया है; किन्तु वास्तव में ज्ञान इन्द्रिय या अतीन्द्रिय नहीं होता।
जिसप्रकार पानी स्वयं अपने आप में पीला या नीला नहीं होता; किन्तु पीले या नीले रंगों के संयोग से उसे पीला या नीला कहा जाता है;
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