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प्रवचनसार का सार देखो, कितनी स्पष्ट बात है; फिर भी लोग न जाने क्यों पुण्य भाव को बंध के अभाव का कारण मानते हैं।
इस गाथा का आश्रय लेकर ही कई लोग कहते हैं कि इस गाथा में लिखा है कि शुभोपयोग होता है तो पुण्यबंध होता है; इसलिए शुभोपयोग तो उपादेय है न?
अरे भाई। इस गाथा में यह थोड़े ही लिखा है कि पुण्यबंध करना चाहिए। इस गाथा में तो क्या होता है - इसकी बात चल रही है। यह व्याख्यान क्या करना चाहिए एवं क्या नहीं करना चाहिए - इसप्रकार के हेय-उपादेय का नहीं है। तदनन्तर शुभोपयोग का स्वरूप कहनेवाली १५७वीं गाथा इसप्रकार है
जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तदेव अणगारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ।।१५७।।
(हरिगीत) श्रद्धान सिध-अणगार का अर जानना जिनदेव को।
जीवकरुणा पालना बस यही है उपयोग शुभ ।।१५७।। जो जिनेन्द्रों को जानता है, सिद्धों तथा अनागारों की (आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं की) श्रद्धा करता है और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है; उसका वह शुभ उपयोग है।
गाथा के अर्थ की प्रथम पंक्ति में जो यह लिखा है कि जो जिनेन्द्रों को जानता है - इसी भाव को प्रदर्शित करनेवाली इसी प्रवचनसार की गाथा ८० की प्रथम पंक्ति है, जो कि निम्नानुसार है -
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । जो अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानता है......।
सिद्धों तथा अनागारों की श्रद्धा करने का तात्पर्य उनको जानना ही है; क्योंकि कहीं पेच्छदि शब्द लिख देते हैं और कहीं जाणदि । अनगार
सत्रहवाँ प्रवचन शब्द का तात्पर्य ऋषि-मुनि ही है। इसप्रकार इस गाथा में पंचपरमेष्ठी की ही बात है। ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ पंचपरमेष्ठी की भक्ति के भाव को शुभोपयोग नहीं कहा, अपितु उन्हें जानने-देखने को शुभोपयोग कहा है। जब पंचपरमेष्ठी की ओर उपयोग जाने का नाम ही शुभोपयोग है; तब भक्ति की तो बात ही क्या करना ? ___ भक्ति के नाम पर भगवान से कुछ माँगना, उनसे कुछ करने का अनुरोध करना भक्ति नहीं है, अपितु भिखारीपन है। नाटक समयसार में भक्ति का यथार्थ स्वरूप इसप्रकार लिखा है - कबहू सुमति है कुमति को विनास करै,
कबहू विमल जोति अंतर जगति है। कबहू दयाल है चित्त करत दयालरूप,
कबहू सुलालसा लै लोचन लगति है। कबहू आरती है कै प्रभु सनमुख आवै,
कबहू सुभारती है बाहरि वगति है। धरै दसा जैसी तब करै रीति तैसी ऐसी,
हिरदै हमारै भगवंत की भगति है।।१४।। हमारे हृदय में भगवान की ऐसी भक्ति है जो कभी तो सुबुद्धिरूप होकर कुबुद्धि को हटाती है, कभी निर्मल ज्योति होकर हृदय में प्रकाश डालती है, कभी दयालु होकर चित्त को दयालु बनाती है, कभी अनुभव की पिपासारूप होकर नेत्रों को थिर करती है, कभी आरतीरूप होकर प्रभु के सन्मुख आती है, कभी सुन्दर वचनों में स्तोत्र बोलती है; जब जैसी अवस्था होती है, तब तैसी क्रिया होती है।
इसप्रकार बनारसीदासजी ने जिनवाणी के पढ़ने को, जिनेन्द्रदेव के अनुसार चलने को भी जिनेन्द्रदेव की भक्ति कहा है। खान-पान में भक्ष्याभक्ष्य का विचार रखना भी जिनेन्द्रदेव की भक्ति है। प्रवचन सुनना भी जिनेन्द्रदेव की भक्ति है।
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