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प्रवचनसार का सार
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जो द्रव्यों के सभी प्रदेशों में अनादिकाल से अनंतकाल तक रहनेवाले हैं; उनको गुण कहते हैं अर्थात् जहाँ काल की एवं क्षेत्र की सीमा नहीं है, जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों (प्रदेशों) में एवं उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा विद्यमान रहते हैं, उन्हें गुण कहा जाता है।
द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक प्रत्येक वस्तु (अर्थ-पदार्थ) के साथ द्रव्यक्षेत्र-काल और भाव भी जुड़े हुए हैं। द्रव्य अर्थात् वस्तु, क्षेत्र अर्थात् प्रदेश, काल अर्थात् उसकी अनंतानंतपर्यायों की अनादि-अनंतता और भाव अर्थात् अनन्त गुण।
जो सभी क्षेत्र अर्थात् सम्पूर्ण प्रदेशों में, सभी पर्यायों में अर्थात् अनादिकाल से अनंतकाल तक सभी अवस्थाओं में एकसा विद्यमान रहता है, उसे गुण कहा जाता है।
पर्यायें मूलतः दो प्रकार की होती हैं - द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय । द्रव्यपर्याय को व्यंजनपर्याय और गुणपर्याय को अर्थपर्याय भी कहते हैं।
अनेक द्रव्यों की मिली हुई पर्याय को द्रव्यपर्याय या व्यंजनपर्याय कहते हैं और गुणों के परिणमन को गुणपर्याय या अर्थपर्याय कहते हैं।
द्रव्यपर्याय अर्थात् व्यंजनपर्याय भी दो प्रकार की होती है - समानजातीयव्यंजनपर्याय और असमानजातीयव्यंजनपर्याय ।
समान जाति के अनेक द्रव्यों की मिली हुई पर्याय को समानजातीय व्यंजनपर्याय कहते हैं। अनेक पुद्गल परमाणु से निर्मित होने के कारण स्कन्धों को समानजातीयव्यंजनपर्याय कहते हैं।
असमान जाति के अनेक द्रव्यों से मिली हुई पर्याय को असमानजातीयव्यंजनपर्याय कहते हैं। जीव और पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होनेवाली मनुष्यादि पर्यायें असमानजातीयव्यंजनपर्यायें कही जाती हैं।
गुणपर्यायें भी दो प्रकार की होती हैं - स्वभावपर्यायें और विभावपर्यायें । पुद्गल की परमाणु और जीव की केवलज्ञानादि स्वभावगुणपर्यायें
नौवाँ प्रवचन
१४९ हैं और जीव के ज्ञानगुण की मतिज्ञानादि और पुद्गल की स्कन्ध आदि पर्यायें विभावपर्यायें हैं। ___ व्यवहारनय दो प्रकार का कहा गया है। अपने ही अन्दर भेद करना सद्भूतव्यवहारनय है एवं अनेक द्रव्यों को मिलाकर कथन करना असद्भूतव्यवहारनय है। ____ मनुष्यादि असमानजातीयव्यंजनपर्याय असद्भूतव्यवहारनय का विषय है; क्योंकि मनुष्यादि पर्यायें अनेक द्रव्यों की मिली हुई पर्यायें हैं।
अनादिकाल से इस आत्मा ने यदि एकत्वबुद्धि की है तो वह मनुष्यादि पर्यायरूप इस असमानजातीयद्रव्य (व्यंजन) पर्याय में ही की है।
समानजातीयद्रव्यपर्याय में दो जीवों की पर्याय मिलकर एक पर्याय नहीं बनती है; क्योंकि समानजातीयद्रव्यपर्याय पुद्गलों में ही होती है। मकान में यह मेरा है' - यह ममत्वबुद्धिरूप और अपने शरीर में 'ये मैं हूँ' - यह एकत्वबुद्धिरूप मूढ़ता है। ऐसा पर्यायमूढ़ व्यक्ति ही परसमय है। इसप्रकार आचार्यदेव ने इन गाथाओं में जो चर्चा की है, वह विशेष कर असमानजातीयद्रव्यपर्याय एवं समानजातीयद्रव्यपर्याय की ही की है
छहढाला में कहा है - 'देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है ।।३/४ ।।'
तत्त्व के संबंध में मूढ़ बहिरात्मा शरीर और जीव को एक ही मानता है।
इन गाथाओं के सन्दर्भ में पर्यायमूढ़ की चर्चा करनेवाले जो विद्वान केवलज्ञानपर्याय में अपनत्व स्थापित करने की बात करते हैं, वे इस ओर ध्यान दें कि यहाँ केवलज्ञानादि पर्यायों की बात नहीं, मनुष्यादि पर्यायों की ही बात है। मैं मनुष्य हूँ, मैं तिर्यंच हूँ, मैं देव हूँ, मैं नारकी हूँ - इसप्रकार संयोगों में अर्थात् प्राप्त अवस्था में जो एकत्वबुद्धि करता है, उसे ही यहाँ पर्यायमूढ परसमय कहा है।
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