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पन्द्रहवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम का ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार चल रहा है। इसमें द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार की चर्चा हुई, अब द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार की चर्चा आरंभ करते हैं। यह द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार १२७वीं गाथा से १४४वीं गाथा तक है। इसमें जो विषयवस्तु है; वह अपेक्षाकृत बहुत सामान्य है एवं जो धर्म में थोड़ी भी रुचि रखते हैं, उनको भी इस विषय-वस्तु की जानकारी रहती है।
इसमें जीवादिक छह द्रव्यों का वर्णन है; जो पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थसूत्र, द्रव्यसंग्रह एवं छहढाला आदि सर्वसुलभ ग्रन्थों में भी है। जो विषयवस्तु हमने इन ग्रन्थों में पढ़ी है; उसे ही यहाँ प्रकारान्तर से १८ गाथाओं में प्रस्तुत किया है; लेकिन प्रवचनसार की यह अपनी विशेषता है कि इसमें छह द्रव्यों को जीव-अजीव, मूर्तिक-अमूर्तिक, सक्रियनिष्क्रिय, लोक-अलोक, अस्तिकाय-नास्तिकाय आदि अनेकप्रकार के अनेक वर्गों में विभाजित किया है। जबकि अन्य सभी ग्रन्थों में उन्हें मात्र जीव और अजीव - इसप्रकार एक ही वर्ग में विभाजित किया है।
वस्तुस्थिति इसप्रकार है कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इसप्रकार द्रव्य छह प्रकार के हैं। इनमें अजीव नामक कोई द्रव्य नहीं है; परन्तु जीवको मुख्य बनाकर उन छह द्रव्यों को दो भागों में बाँटा गया है। एक पक्ष में जीव नामक एक ही द्रव्य रखा है एवं दूसरे पक्ष में अन्य पाँच द्रव्यों को रखकर उन्हें अजीव कहा गया; इसप्रकार से जीव
और अजीव ये दो द्रव्य हैं। ___ आचार्य नेमिचन्द्रकृत द्रव्यसंग्रह का मंगलाचरण इसी वर्गीकरण से प्रारम्भ होता है -
_ 'जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिदिटुं।' जिस भगवान ने जीव और अजीव द्रव्यों को हमें बताया। उन्हें हम
पन्द्रहवाँ प्रवचन
___२३१ नमस्कार करते हैं। इसप्रकार यहाँ जीव-अजीव की मुख्यता से ही विभाग किया गया है। मैं स्वयं जीव हूँ और मैंने बहुत से अजीव पदार्थों
को जीव मान रखा है। स्वयं को उन अजीव पदार्थों से भिन्न जानने के लिए ही इसतरह के दो भेद किये हैं। भेदविज्ञान की मुख्यता से ही उनका बँटवारा किया गया है।
यहाँ जीव-अजीव की परिभाषायें इसप्रकार दी हैं - चेतना लक्षण जीव है एवं जिनमें चेतना नहीं है, वे अजीव हैं। यद्यपि अजीव में जो पाँच द्रव्य आते हैं, उनकी पृथक् से अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं; तथापि यहाँ एक ऐसी परिभाषा आवश्यक थी, जो पाँचों द्रव्यों में घटित हो, जो पाँचों को अपने में समेट सके । इसलिए जिसमें चेतनालक्षण नहीं है, वह अजीव है - ऐसी नकारात्मक (अभावात्मक-निगेटिव) परिभाषा दी गई है।
जीव चेतनालक्षण सहित है, पुद्गल स्पर्श-रस-गंध-वर्ण सहित है और धर्म की गतिहेतुत्व, अधर्म की स्थितिहेतुत्व, आकाशद्रव्य की अवगाहनहेतुत्व एवं काल की परिभाषा परिणमनहेतुत्व है।
जब प्रत्येक द्रव्य की सकारात्मक परिभाषायें उपलब्ध हैं तो फिर नकारात्मक (निगेटिव) चर्चा क्यों की गई ?
भाई ! अजीव की बात ही कुछ अजीव है; क्योंकि वह शब्द स्वयं नकारात्मक (निगेटिव) है, उसका नामकरण ही नकारात्मक (निगेटिव) हुआ है। जो जीव नहीं है, वह अजीव; इसलिए जिसमें चेतना नहीं है, वह अजीव है। स्व-पर विभागरूप भेदविज्ञान की सिद्धि के लिए ही ऐसी परिभाषा दी हैं।
इस अधिकार में आचार्यदेव ने सर्वप्रथम जीव-अजीव इसप्रकार दो विभाग किये। फिर प्रत्येक द्रव्य का लक्षण बताया; फिर छह द्रव्यों के समुदाय को विश्व कहकर, उसे दो भागों में विभाजित किया।
जहाँ छहों द्रव्य पाये जावे, वह लोक या लोकाकाश और जहाँ
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