________________
प्रवचनसार का सार
२३६ निमित्त होती हैं। इसलिए इन्द्रियों के द्वारा जो जानने में आता है, वह मूर्त है - ऐसा कहा है।
यहाँ प्रश्न यह है कि यह अनिवार्य नहीं है कि हम मूर्त को आँख से ही देख सकते हैं, केवली भगवान तो बिना आँख के ही रूप को देखते हैं।
अरे भाई ! जिन संसारी जीवों को मूर्तिक और अमूर्तिक का भेद बताना है; वे संसारीजीव रूप को आँख के माध्यम से ही जानते हैं; इसलिए आचार्यदेव ने यहाँ इन्द्रियग्राह्य यह विशेषण जोड़ दिया है। __वस्तुत: जिसमें स्पर्श-रस-गंध-वर्ण पाया जाये; उसे मूर्त कहना चाहिए था; क्योंकि यही भावात्मक (पॉजिटिव) लक्षण है; परन्तु आचार्यदेव ने यह लक्षण जीव की तरफ से दिया है। यह लक्षण हमारी सुविधा के लिए है कि इन्द्रियों के माध्यम से जो जानकारी हो रही है, वह सब मूर्त पदार्थों की ही हो रही है। मूर्त पदार्थ मात्र पुद्गल हैं; इसलिए केवल पुद्गल ही हमारे जानने में आ रहा है। ____ हमारे हृदय में इन्द्रियों के प्रति बहुत उपकृत भाव हो गया है। हम उनके कृतज्ञ हो गये हैं एवं उनकी कृतज्ञता में बहुत दब गये हैं।
यह हमारे मस्तिष्क में बैठ गया है कि इन्द्रियाँ हमारे ज्ञान में सहायक हैं; उपकारक हैं। पुद्गल को जानने में, मूर्त पदार्थ को जानने में इन्होंने बहुत उपकार किया है, यदि आँख नहीं होती तो मुझे रूप दिखाई नहीं देता।
बहुत से लोग तो यह कहते हैं कि आँखे गई तो समझ लो जीवन गया, बस मर गये । इसप्रकार इन्द्रियों को हम हमारे ज्ञान में बहुत बड़ा सहयोगी मानते हैं एवं उससे स्वयं को उपकृत एवं कृतज्ञ मानते हैं।
इन्द्रियों के समर्थन में हम कहते हैं कि ये ज्ञान में निमित्त हैं, शास्त्रों को पढ़ने में नेत्रों ने सहयोग दिया है, कानों ने प्रवचन सुनने में सहारा दिया है ? इसतरह हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। इसलिए आचार्यदेव ने यह कहा है कि इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है। बालबोध पाठमाला भाग-३ में भी मैंने लिखा है कि 'इन्द्रिय ज्ञान तुच्छ है; क्योंकि
पन्द्रहवाँ प्रवचन
२३७ वह आत्मा के जानने में उपादान तो है ही नहीं, निमित्त भी नहीं है।'
इन्द्रियाँ पुद्गल के जानने में भी निमित्त ही हैं, उपादान नहीं है।
इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त होने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि वे मात्र पुद्गल के स्कंधों को जानने में निमित्त हैं; अत: हमारे आत्म -कल्याण के कार्य में उनकी कोई उपयोगिता नहीं है।
समयसार ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि जो जीव को नहीं जानता है, वह अजीव को भी नहीं जानता है और जो जीव-अजीव को नहीं जानता है, वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
आत्मा को अस्ति से जानना वह जीव को जानना है और आत्मा को ही नास्ति से जानना वह अजीव को जानना है।
जीव को आत्मा का कल्याण करना है तो आत्मा को जानो - इतना ही पर्याप्त है। देह से भिन्न, राग से भिन्न भगवान आत्मा को जानना है तो फिर शरीर और राग को भी जानना ही होगा; क्योंकि राग को जानना आस्रव को जानना है, देह को जानना अजीव को जानना है।
इसप्रकार शरीर और राग से भिन्न आत्मा को जानना ही शरीररूप अजीव और रागरूप आस्रव को जानना है। उनके बारे में इससे अधिक और कुछ नहीं जानना है।
इसे ही मैं दूसरी विधि से समझाता हूँ कि आत्मकल्याण के लिए भाषा को जानना जरूरी है या नहीं?
देशनालब्धि के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होगा। शास्त्र में पाँच लब्धियों में देशनालब्धि को अनिवार्य कहा गया है। वह देशनालब्धि किसी न किसी भाषा में ही होगी। गुरु हमें समझायेंगे तो वे हिन्दी, संस्कृत, गुजराती किसी न किसी भाषा के माध्यम से ही समझायेंगे।
मेरे कथन का आशय यह है कि आत्मकल्याण के लिए मात्र आत्मा का ज्ञान जरूरी नहीं है; उसके साथ भाषा का ज्ञान भी होना चाहिए। मात्र आत्मा को ही जानो और कुछ नहीं - यह मुख्यता की विवक्षा से उचित ही है; परन्तु गौणरूप से गहराई में जायेंगे तो धीरे-धीरे सभी बिन्दु स्पष्ट हो जाते हैं।
115