Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 121
________________ २४२ प्रवचनसार का सार जैसे हम आपसे कहें कि देखो भाई! आपको हमारी संस्था के लिए चंदा के रूप में एक हजार रुपये देना पड़ेंगे; एक हजार रुपये नहीं दे सकते तो एक लाख रुपये दे दो, एक लाख रुपये नहीं देंगे तो एक करोड़ से कम तो हम लेगें ही नहीं। ऐसा कहनेवाला व्यक्ति पागल ही माना जायेगा। यदि वह कहे कि एक करोड़ देने पड़ेंगे, करोड़ नहीं तो लाख दो, लाख नहीं तो हजार दो, एक सौ एक तो लेकर ही रहूँगा - इसे हम क्रम से बोलना कहते हैं। ऐसे ही मैं देह नहीं हूँ, मैं राग नहीं हूँ, मैं सम्यग्दर्शन नहीं हूँ, मैं केवलज्ञान नहीं हूँ - यह क्रम होना चाहिए; परन्तु हम बिहारी जैसी गलती कर रहे हैं; क्योंकि हम केवलज्ञान से शुरू करते हैं। इसतरह विभिन्न रीति से जो इन्द्रियों से ग्राह्य हैं; वे मूर्त हैं। इसकी चर्चा देशनालब्धि के परिप्रेक्ष्य में की। यहाँ आचार्य ने द्रव्यों को सप्रदेशी और अप्रदेशी में भी विभाजित किया है। आचार्य कहते हैं कि कालद्रव्य एकप्रदेशी हैं, आकाशद्रव्य अनंतप्रदेशी है, जीवद्रव्य असंख्यातप्रदेशी हैं, धर्म और अधर्मद्रव्य भी असंख्यातप्रदेशी हैं और पुद्गलद्रव्य निश्चय से एकप्रदेशी और व्यवहार से संख्यातप्रदेशी, असंख्यात और अनंतप्रदेशी है। इसप्रकार इन १८ गाथाओं में आचार्यदेव ने जीव-अजीव का वर्णन किया, छहों द्रव्यों के नाम गिनाये; जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं कालद्रव्य की परिभाषाएँ दी। तत्पश्चात् लोक-अलोक, सक्रियनिष्क्रिय, इस अपेक्षा से छहो द्रव्यों में भेद उपस्थित किये। फिर मूर्तअमूर्त, सप्रदेशी-अप्रदेशी का भेद उपस्थित किया। इसप्रकार आचार्यदेव ने यहाँ द्रव्यविशेष की चर्चा पूर्ण की है। १४५ वीं गाथा की उत्थानिका में ही आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं। अब इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व कहकर, ज्ञान और ज्ञेय के विभाग द्वारा आत्मा को निश्चित करते हुए, आत्मा को अत्यन्त विभक्त (भिन्न) करने के लिए व्यवहारजीवत्व के हेतु का विचार करते हैं। पन्द्रहवाँ प्रवचन २४३ इसप्रकार से यहाँ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार समाप्त ही हो गया समझो; क्योंकि सामान्य ज्ञेय और विशेष ज्ञेय - दोनों प्रकार से ज्ञेयों की चर्चा हो चुकी है; किन्तु आत्मकल्याण की दृष्टि से ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व - इन दोनों की पृथक्ता बताना अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि आचार्यदेव उक्त दोनों अधिकारों के बाद ज्ञान और ज्ञेय में अन्तर बतानेवाले अधिकार को आरंभ करते हैं। यद्यपि मैं ज्ञानतत्त्व हूँ; तथापि मैं ज्ञेयतत्त्व भी हूँ। अब यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानतत्त्व में भी आत्मा की चर्चा है एवं ज्ञेयतत्त्व में भी आत्मा की ही चर्चा है। दोनों ही स्थानों पर एक आत्मा की ही चर्चा क्यों की गई? अरे भाई ! ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन में जाननेवाले आत्मा की चर्चा की गई है और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में जानने में आनेवाले आत्मा की चर्चा की गई है। वस्तुतः बात यह है कि वह आत्मा जाननेवाला है' - ऐसा हमें जानना है। एक शादी का निमंत्रण-पत्र आया। लड़केवालों की तरफ से भी आया और लड़कीवालों की तरफ से भी। वे लड़के के दूर के मामा लगते हैं और लड़की के भी कुछ न कुछ लगते हैं। इसप्रकार वह व्यक्ति वरपक्ष में एक हैसियत से आया है और वधूपक्ष में दूसरी हैसियत से। समझ लीजिए दो भाईयों की शादी दो बहनों से हुई। पहले शादी तो बड़े भाई की ही होगी। बड़ा भाई अपने छोटे भाई की बारात में जायेगा तो वह दोनों तरफ से शामिल होगा। एक पक्ष से अपने छोटे भाई के शादी में जा रहा है और दूसरे पक्ष में अपनी साली की शादी में जा रहा है। वह दोनों पक्षों में दो भिन्न हैसियत से खड़ा है। ऐसे ही यह भगवान आत्मा ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार में जाननेवाले तत्त्व के रूप में उपस्थित है एवं ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार में जानने में आने वाले तत्त्व के रूप में उपस्थित है। चूँकि इस आत्मा का स्वभाव जानना है। जानने में जो आत्मा आ रहा है, वह आत्मा भी जाननेवाला तत्त्व है। अत: उसे इसीरूप में जाना जावेगा; क्योंकि इसमें जानने का गुण मना 118

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