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प्रवचनसार का सार करनेवाला नहीं है अर्थात् उनकी अर्थपर्यायें स्वतंत्ररूप से होती रहेंगी।
ये अपनी-अपनी अर्थपर्यायें एक दूसरे द्रव्य से संबंध रखती ही नहीं हैं। प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी अर्थपर्यायें अर्थात् गुणपर्यायें करता रहे; तब भी, जो यह संयोगात्मक अवस्था है - उसका नाम मनुष्यादि पर्यायें हैं। इन्हीं मनुष्य-देव-नारकी पर्यायों से भगवान आत्मा भिन्न है - यहाँ मुख्य उद्देश्य यही बताना है।
आगे पर्यायों का परस्पर भेद बतलानेवाली १५३वीं गाथा निम्नानुसार
णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा। पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मस्स ।।१५३ ।।
(हरिगीत) तिर्यंच मानव देव नारक नाम नामक कर्म के।
उदय से पर्याय होवें अन्य-अन्य प्रकार की ।।१५३।। मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव - ये नामकर्म के उदयादिक के कारण जीवों की पर्यायें हैं, जो कि संस्थानादि के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं।
यहाँ पर संस्थानादिक के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं' का तात्पर्य यह है कि मनुष्य, नारक आदि पर्यायों में विविधता होती है। मनुष्य सुन्दर होते हैं, नारकी बहुत बुरे दिखते हैं; सबके आकार अलगअलग होते हैं। मनुष्य, तिर्यंच आदि में मूल सामग्री अर्थात् जीव और पुद्गल समान होने के बावजूद उनमें विविधता का कारण प्रत्येक का अलग-अलग नामकर्म का उदय है।।
जैसा कि इसी गाथा में की टीका में कहा है -
"नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - ये जीवों की पर्यायें हैं। वे नामकर्मरूप पुद्गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों की संयोगात्मक हैं; इसलिए जैसे तुष की अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि की पर्यायें चूरा
सोलहवाँ प्रवचन
२५७ और डली इत्यादि आकारों से अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं; उसीप्रकार जीव की वे नारकादि पर्यायें संस्थानादि के द्वारा अन्यान्य प्रकार की ही होती हैं।"
मनुष्य नाम आत्मा की तरफ से रखा हुआ नाम नहीं है; क्योंकि आत्मा तो उसका एक देश (अंश) है। मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जीव और शरीर का मिलकर मनुष्य नाम पड़ा है।
हुकमचन्द भारिल्ल, पूनमचन्द छाबड़ा आदि में हुकमचन्द और पूनमचन्द मूल नाम हैं। भारिल्ल और छाबड़ा शब्द गोत्र को दर्शानेवाले हैं; वैसे ही मनुष्यजीव इस नाम में जीव गोत्र के स्थान पर है और मनुष्य नाम के स्थान पर है।
नामकर्म के उदय की ओर से मनुष्य और चेतन की ओर से जीव है। मूल नाम तो मनुष्य है। मनुष्यजीव, तिर्यंचजीव, नारकीजीव, देवजीव ऐसा नहीं बोला जाता; अपितु मनुष्य, तिर्यंच, नारकी और देव - ऐसा ही कहा जाता है। ___ इसप्रकार नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - ये जीवों की पर्यायें नाम कर्मरूप पुद्गल से विपाक के कारण अन्य द्रव्यों की संयोगात्मक हैं। जिसप्रकार अग्नि तो एक है; लेकिन कंडे की अग्नि है तो वह कंडे के आकार की होती है; कोयले की अग्नि कोयले के आकार की होती है; जिसप्रकार अग्नि के आकार बदल जाते हैं; उसीप्रकार नामकर्मरूप पुद्गल विपाक के कारण जीव के आकार बदल जाते हैं। ____ जीव और पुद्गल के संयोग से एक अवस्था होने पर भी, उन सबकी पर्यायों में भिन्नता आने का कारण अपने-अपने नामकर्म का उदय है।
इसप्रकार यह निश्चित हुआ कि जीव तो एक ही है; पर नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - इन पर्यायों में भिन्नता का कारण नामकर्म के उदय से प्राप्त भिन्न प्रकार के संयोग हैं।
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