Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 126
________________ २५२ प्रवचनसार का सार अरे भाई ! आत्मा केवलज्ञानस्वभावी नहीं; अपितु केवल ज्ञानस्वभावी है। इसप्रकार टोडरमलजी ने निश्चयाभासी के स्वरूप का भलीभांति दिग्दर्शन कराया है। इसके बाद गाथा नं. १५१ की टीका का निम्नांकित कथन भी द्रष्टव्य है - “यहाँ तात्पर्य यह है कि - आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिए व्यवहारजीवत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण उच्छेद करने योग्य है।" यहाँ 'उच्छेद करने योग्य है' का तात्पर्य मारने योग्य नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा अर्थ हो तो वह हिंसा हो जायेगी। पौद्गलिक प्राण मैं नहीं हूँ - ऐसा मानने का नाम उच्छेद करने योग्य है। जो व्यवहारजीवत्व से विभक्तता सिद्ध कर लेगा, वही अत्यन्त विभक्त होगा - ऐसा सुनकर, पढ़कर कोई कहे कि यह तो स्थूलविभक्त हुआ, सूक्ष्मविभक्त नहीं। अरे भाई ! ऐसा नहीं है। इसी संबंध में मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि हमारे यहाँ एक सूक्ष्म-स्थूल कहने का प्रकरण भी प्रचलन में आ गया है। इसके संबंध में टोडरमलजी ने सूक्ष्म की परिभाषा देते हुए कहा है कि जो केवलज्ञानगम्य है अर्थात् जो बात हमारे ज्ञान में सीधी नहीं आ सकती; उसे सूक्ष्म कहते हैं और जो अपने क्षयोपशम ज्ञान में आ सकती है, उसे स्थूल कहते हैं। इसीलिए टोडरमलजी ने करणानुयोग को सूक्ष्म कहा है और अध्यात्म को स्थूल कहा है। अरे भाई ! अपनी आत्मा का अनुभव अपने आपको हो सकता है इसलिए वह स्थूल है; लेकिन दूसरे की आत्मा का अनुभव स्वयं को नहीं हो सकता है; अत: वह सूक्ष्म है। स्वयं का सुख-दुःख जानना स्थूल है और दूसरे का सुख-दुःख जानना सूक्ष्म है। सोलहवाँ प्रवचन २५३ अरे भाई ! चरणानुयोग का कथन सूक्ष्म है या स्थूल ? आलू में अनंत जीव हैं - यह बात सूक्ष्म है; क्योंकि वे सर्वज्ञ की वाणी द्वारा ही जाने जा सकते हैं; दूरबीन से नहीं देखे-जाने जा सकते हैं। सुमेरु पर्वत एक लाख योजन का होने पर भी हम उसे प्रत्यक्ष नहीं जान सकते; अतः सुमेरु पर्वत भी सूक्ष्म ही है। जिन्हें हम प्रत्यक्ष देखते-जानते हैं, वे स्थूल हैं और जिन्हें सर्वज्ञकथित आगम और अनुमान से जाना जाता है, वे केवलज्ञानगम्य बातें सूक्ष्म हैं। ये सूक्ष्म-स्थूल की परिभाषायें समझना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है। तदनन्तर प्रवचनसार में १५२ वीं गाथा का वर्ण्यविषय बतानेवाली उत्थानिका का निम्नांकित कथन भी द्रष्टव्य है “अब फिर भी, आत्मा की अनन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिए, व्यवहारजीवत्व की हेतुभूत - गतिविशिष्ट (देव-मनुष्यादि) पर्यायों का स्वरूप कहते हैं।" इसके बाद गाथा १५२ की टीका का हिन्दी का भाव इसप्रकार है "स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से निश्चित एक अर्थ का (द्रव्य का), स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से ही निश्चित अन्य अर्थ में (द्रव्य में) विशिष्टरूप से (भिन्न-भिन्न रूप से) उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव), अनेकद्रव्यात्मकपर्याय है। जिसप्रकार एक पुद्गल की अन्य पुद्गल के संसर्ग से समानजातीयद्रव्यपर्याय होती है; उसीप्रकार जीव और पुद्गल की संस्थानादि से विशिष्टतया (संस्थान इत्यादि के भेद सहित) उत्पन्न होती हुई असमानजातीयद्रव्यपर्याय अनुभव में अवश्य आती है; जो ठीक ही है।" उक्त टीका में 'अनेकद्रव्यात्मकपर्याय' पद का अर्थ व्यञ्जनपर्याय 123

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