Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 125
________________ २५० प्रवचनसार का सार कारण सभी कर्मों को भी दस प्राणों में गर्भित कर लिया। द्रव्यकर्म तो कर्म हैं ही; रागादिभाव रूप भावकर्म भी कर्मों में ही शामिल हैं, यहाँ तक कि शरीरादि भी नोकर्म होने से कर्म ही हैं; इसीलिए तो छहढाला की निम्नपंक्ति में कहा है कि - वर्णादि अरु रागादितैं निजभाव को न्यारा किया। वर्णादि संयोग और रागादि संयोगी भावों से निज आत्मा को भिन्न किया अर्थात् भिन्न जाना, माना और भूमिकानुसार उनका अभाव भी किया। वास्तव में यह पंक्ति निम्नांकित समयसार कलश का पद्यानुवाद हैवर्णाद्या वा रागमोहादयो वा, भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवांतस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी, नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।। वर्णादि व राग - मोहादिभाव इस भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं; इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने पर भगवान आत्मा में ये सभी भाव दिखाई नहीं देते; किन्तु इन सबसे भिन्न, सर्वोपरि एक आत्मा ही दिखाई देता है। इसके बाद पौद्गलिक प्राणों की संतति की ( प्रवाह की परम्परा की) प्रवृत्ति का अन्तरंग हेतु कहनेवाली गाथा प्रस्तुत करते हैं; जो निम्नानुसार है - आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे । ण चयदि जाव ममत्तिं देहपधाणेसु विसयेसु ।। १५० ।। ( हरिगीत ) ममता न छोड़े देह विषयक जबतलक यह आतमा । कर्ममल से मलिन हो पुन- पुनः प्राणों को धरे ।। १५० ।। जबतक देहप्रधान विषयों में ममत्व को नहीं छोड़ता; तबतक कर्म से मलिन आत्मा पुन:-पुःन अन्य-अन्य प्राणों को धारण करता है। यहाँ देहप्रधान विषयों से तात्पर्य ऐसे विषयों से हैं; जिनका कहीं न १. समयसार कलश, कलश ३७ 122 सोलहवाँ प्रवचन २५१ कहीं देह से संबंध जुड़ता हो । पाँच इन्द्रियों के विषय त्यागने की बात भी देह से जुड़ती है; क्योंकि पाँचों इन्द्रियों के विषय देह से सम्बन्धित ही हैं। टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में सातवें अध्याय में निश्चयाभासी का जो प्रकरण लिखा है; उसमें निश्चयाभासी का सबसे बड़ा दोष यही बताया है कि वह जो पर्याय अभी है, उससे तो इन्कार करता है और जो पर्याय अभी नहीं है, उसमें एकत्व करता है। देखो भाई ! पर्याय से आत्मा भिन्न है यह बात शत-प्रतिशत सत्य है; लेकिन वह मनुष्यादि संसारी पर्यायों में या सिद्ध पर्याय में से किसी न किसी एक पर्याय में रहता अवश्य है और उसके प्रत्येक गुण की प्रतिसमय एक पर्याय होती ही है यह बात भी तो शत-प्रतिशत सत्य ही है। यदि पर्याय आत्मा से पृथक् ही है अर्थात् पर्याय है ही नहीं, तो फिर उससे पृथक् रहने का क्या अर्थ है ? गधे का सींग मेरा नहीं है, आकाश का फूल मेरा नहीं है, बाँझ का बेटा मेरा नहीं है - यह सब कहने का क्या औचित्य है ? जिनकी वर्तमान में सत्ता ही नहीं हो, उनसे पृथक् होने की क्या बात करना ? आत्मा केवल ज्ञानस्वभावी तो है; लेकिन वर्तमान में हमें तुम्हें केवलज्ञान नहीं है, सम्यग्दर्शन नहीं है। भूत की पर्याय भूत में है और भविष्य की पर्याय भविष्य में है। सभी पर्यायें स्वकाल में हैं; परकाल में नहीं। आचार्यदेव भेदविज्ञान के लिए कहते हैं कि जो पर्याय वर्तमान में है, उसकी भी उपेक्षा करो; क्योंकि उसके लक्ष्य से आत्मा का अनुभव नहीं होगा। द्रव्यदृष्टि में तो पर्याय है ही नहीं और पर्यायदृष्टि से वर्तमानपर्याय से आत्मा तन्मय है । तात्पर्य यह है कि द्रव्यदृष्टि से तो मैं भगवान आत्मा हूँ और पर्यायदृष्टि से मैं मनुष्य हूँ। वर्तमान में देव तो मैं न द्रव्यदृष्टि से हूँ और न पर्यायदृष्टि से। अभी वर्तमान में जो मिथ्यादर्शनरूप पर्याय है, उस पर्याय से भिन्नता की बात यहाँ है।

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