Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 123
________________ २४६ प्रवचनसार का सार एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शन इन्द्रिय, एक कायबल और आयु व श्वासोच्छ्वास - ये चार प्राण ही होते हैं। इसीप्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। रसना इन्द्रिय और वचनबल बढ़ जाने से दो इन्द्रिय के छह प्राण, घ्राण इन्द्रिय बढ़ जाने से त्रीन्द्रिय के सात प्राण, चक्षु इन्द्रिय बढ़ जाने से चार इन्द्रिय के आठ प्राण और कर्ण इन्द्रिय तथा मनोबल बढ़ जाने से पंचेन्द्रिय के दश प्राण होते हैं। स्वपर को जानने की अनंतशक्ति जिसमें विद्यमान है, उसका नाम निश्यचजीव है तथा जो देह और आत्मा की मिली हुई असमानजातीयद्रव्यपर्याय है, उसका नाम व्यवहारजीव है। दश प्राणों से भेदविज्ञान के माध्यम से आचार्यदेव मनुष्यादिपर्यायरूप असमान-जातीयद्रव्यपर्याय और त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा के बीच में विभाजन रेखा खींचना चाहते हैं। आचार्यदेव कहते हैं कि रागादि परिणाम के कारण कर्मबंधन हुआ, कर्मबंधन से शरीरादि नोकर्म का संबंध हुआ और उससे यह जीव और पुद्गल के संयोगरूप व्यवहारजीवत्व हुआ; क्योंकि स्वभाव तो संयोग का कारण है नहीं और न ही परद्रव्य संयोग का कारण है। इसप्रकार इस व्यवहारजीवत्व के होने के मुख्य कारण मोह-राग-द्वेष ही हैं। इसके बाद आचार्यदेव फिर एकबार इन मोह-राग-द्वेष भावों के कर्ता और अनुमंता होने का निषेध करते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानी की ऐसी भावना होती है कि ये मोह-राग-द्वेषभाव न मैंने किये हैं, न कराये हैं और न मैं इनकी अनुमोदना ही करता हूँ। व्यवहारजीव व निश्चयजीव का उल्लेख समयसार ग्रंथ में भी आता है। जब यह कहा गया कि नवतत्त्व की संततिवाला सम्यग्दर्शन मुझे नहीं चाहिए तो शिष्य ने प्रश्न किया कि नवतत्त्वों में तो जीव भी शामिल है। क्या आपको जीव अर्थात् आत्मा के श्रद्धानवाला सम्यग्दर्शन भी नहीं चाहिए? सोलहवाँ प्रवचन २४७ वहाँ इसका उत्तर देते हुए कहा है कि - नवतत्त्वों में जो जीव है, वह व्यवहारजीव है और मैं वह व्यवहारजीव भी नहीं हूँ। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि वहाँ नवतत्त्वों के जीव को व्यवहारजीव कहा है, परजीव नहीं; क्योंकि परजीवों को तो अजीव में शामिल कर लिया गया है। ___ इसप्रकार यह ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार भगवान आत्मा को मनुष्यादिपर्यायरूप व्यवहारजीव से विभक्त करनेवाला अधिकार है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि जो ये लोकालोक को जानने वाला ज्ञानस्वभावी जीवतत्त्व है; वह स्वयं भी जानने में आता है; क्योंकि उसमें भी प्रमयेत्व नाम का धर्म है। यदि हम आत्मा को मात्र ज्ञानरूप ही माने, ज्ञेयरूप नहीं; तो हमने समग्र आत्मा को ग्रहण नहीं किया; क्योंकि उसमें प्रमेयत्वगुण को शामिल नहीं किया। जो लोग ऐसा समझते हैं कि मैं तो जाननेवाला हूँ और सारा जगत ज्ञेय है; उन्होंने जब अपने आत्मा को जानने योग्य ही नहीं माना तो फिर वे उसे जानने का प्रयास ही क्यों करेंगे? आज सभी के दिमाग में एक बात ही छाई रहती है कि तीर्थों का उद्धार करना है, जिनवाणी का उद्धार करना है; जो पुरानी हस्तलिपियाँ हैं, उनका उद्धार करना भी जरूरी है। हमें टोडरमलजी को प्रकाश में लाना है। हमारे बहुत से प्राचीन लेखक अंधकार में हैं, उनको भी प्रकाश में लाना है। इसप्रकार उनके दिमाग में उद्धारों की एक बड़ी सूची रहती है। जब मैं उनसे विरत रहता हूँ तो बहुत सारे लोग कहते थे कि आप इसमें रस क्यों नहीं लेते हैं ? उन लोगों से मेरा कहना यह है कि आप लोगों ने जो ये इतनी लम्बी सूची बनाई है, इसमें आत्मोद्धार नाम का उद्धार नहीं है; इसलिए मुझे 120

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