Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 114
________________ प्रवचनसार कासार २२१ ૨૨૮ व्यवहार तो असत्यार्थ है; मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि उक्त हिंसा के फल में नरक में जाना पड़ेगा - यह बात असत्य है या सत्य ? यदि सत्य है तो व्यवहारहिंसा से भी बचना चाहिए। ___मैं आपसे ही पूछता हूँ ये राग भी तो व्यवहार है; परंतु क्या इसके फल में स्वर्ग-नरक नहीं है ? यहाँ आचार्य ने जवाकुसुम का उदाहरण दिया है। जवाकुसुम को यदि स्फटिकमणि में लगा दो तो वह मणि जवाकुसुम जैसा ही दिखने लगता है। जबतक जवाकुसुम उस मणि में नहीं है, तबतक वह निर्मल है। जब जवाकुसुम का लालरंग उसमें से दिखाई दे रहा है; तब भी वैसा ही निष्कलंक है; जैसा वह पूर्व में था। अंतर इतना ही है कि अब वह जवाकुसुम के रंग के अनुरूप दिखाई दे रहा है। ऐसे ही आत्मा निगोद से मोक्ष तक एक-सा ही रहेगा; यही उसकी अनन्यता है। आगे आचार्यदेव ने यह स्पष्ट किया है कि बंधमार्ग में और मोक्षमार्ग में यह आत्मा अकेला ही है - यही है एकत्वभावना। यदि बंधमार्ग में अपने कार्यों का जिम्मेदार मैं स्वयं नहीं हुआ तो मोक्षमार्ग भी मेरे हाथ से निकल जायेगा। ज्ञानी का राग चारित्र की कमजोरी है; उसे अज्ञानभाव नहीं कहा जा सकता? । अब प्रश्न यह है कि ज्ञानी उस राग का कर्ता है या नहीं? ज्ञानी की उसमें कर्तृत्वबुद्धि नहीं है; इसलिए ज्ञानी उसका कर्ता नहीं है। ज्ञानी जीव के अनन्तानुबंधी संबंधी रागभाव तो है ही नहीं; अत: उसका कर्ता होने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अप्रत्याख्यानादि संबंधी जो राग है; ज्ञानी उसरूप परिणमता है; अत: वह उसका कथंचित् कर्ता कहा है; किन्तु उसमें कर्तृत्वबुद्धि नहीं है; अतः कथंचित् अकर्ता भी कह सकते हैं। ___ यहाँ सर्वथा कर्ता नहीं है - ऐसा नहीं कहा है। यहाँ कथंचित् कर्ता नहीं है - ऐसा कहा है। यदि सर्वथा कहते तो जिन प्रकृतियों का बंध है, वह नहीं होना चाहिए। जब यह जीव उनका कर्ता नहीं है तो जीव के चौदहवाँ प्रवचन साथ उन प्रकृतियों का बंध क्यों होता है ? ज्ञानी उस रागरूप स्वयं परिणमित हुआ है; परंतु उसकी वहाँ कर्तृत्वबुद्धि नहीं है। वह उसे करने योग्य नहीं मानता है। उसने वहाँ एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्वबुद्धि तोड़ दी है। इस अपेक्षा से उसे अकर्ता कहा जाता है। समयसार में यही मुख्य अपेक्षा है। वहाँ ऐसा लिखा है कि अशुद्धनिश्चयनय से कर्ता है; परंतु अशुद्धनिश्चयनय तो अज्ञानी के ही घटित होता है; वह ज्ञानी के घटित नहीं होता है। तब फिर 'बृहद्रव्यसंग्रहादिक' में यह प्रश्न किया कि ज्ञानी परमशुद्धनिश्चयनय से उसका कर्ता है या नहीं ? इसका उत्तर वहाँ इसप्रकार दिया है कि परमशुद्धनिश्चयनय से वह राग ही नहीं है अर्थात् राग का त्रिकाली ध्रुव में कोई अस्तित्व ही नहीं है। पीली हल्दी और सफेद चूना मिलकर लाल रंग हो जाता है। इसमें हल्दी लाल होती है या चूना लाल होता है ? ऐसा भी कह सकते हैं कि हल्दी के संयोग से चूना लाल हो गया है एवं ऐसा भी कह सकते हैं कि चूने के संयोग से हल्दी लाल हो गई है। इसप्रकार भी कह सकते हैं कि दोनों मिलकर लाल हो गये हैं; परंतु परमशुद्धनिश्चयनय ऐसा कहता है कि हल्दी व चूना कभी मिलते ही नहीं है। हल्दी अभी भी पीली है एवं चूना अभी भी सफेद है; वे मिलते ही नहीं हैं। ऐसे ही कहते हैं कि परमशुद्धनिश्चयनय से राग है ही नहीं। तब उसके कर्ता होने का सवाल ही खड़ा नहीं होता है। इसप्रकार आचार्य ने प्रवचनसार में द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार में पहले उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, स्वरूपास्तित्व, सादृश्यास्तित्व, महासत्ता, अवान्तरसत्ता आदि सबका विस्तार से स्वरूप बताकर उसे आत्मा पर घटित करके, आत्मा के षट्कारक स्वयं पर ही घटित करके इस अधिकार का समापन किया है। 111

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