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ग्यारहवाँ प्रवचन आचार्य जयसेन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनमहाधिकार को सम्यग्दर्शनाधिकार कहते हैं; क्योंकि वे ऐसा मानते हैं कि ज्ञेयतत्त्व को सही रूप में जाने बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती।
इस ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनमहाधिकार में सर्वप्रथम सामान्यज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार है। ज्ञान का ज्ञेय बननेवाले जगत के सभी पदार्थों का सामान्य स्वरूप अर्थात् सबमें पाया जानेवाला स्वरूप क्या है ? यह बताया जायेगा इस अधिकार में।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त एवं गुण-पर्यायों से संयुक्त होना ही सभी ज्ञेयों का सामान्य स्वरूप है; जो सभी ज्ञेयों में समानरूप से विद्यमान है।
प्रत्येक द्रव्य का जो विशेष स्वरूप है, उसे विशेषज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार में लेंगे। तत्पश्चात् ज्ञेय व ज्ञान में विभाग का अधिकार लेंगे; जिसे आचार्यदेव ने ज्ञेय-ज्ञानविभागाधिकार नाम दिया है। ___सामान्यज्ञेयप्रज्ञापनाधिकार में अभीतक महासत्ता और अवान्तरसत्ता की चर्चा हुई। अवान्तरसत्ता अर्थात् स्वरूपास्तित्व । प्रत्येक द्रव्य का अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की सीमा में रहना ही स्वरूपास्तित्व है। ___अपने ज्ञान और दर्शन गुण में परस्पर अतद्भाव है। एक द्रव्य के दो गुणों के मध्य अतद्भाव होता है; परन्तु दो द्रव्यों के मध्य अतद्भाव नहीं होता, अत्यंताभाव होता है। जिसमें द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावरूप चतुष्टय भिन्न-भिन्न हों, उसे अत्यंताभाव कहते हैं।
पर्यायों के मध्य परस्पर अतद्भाव होता है। गुणों के मध्य परस्पर अतद्भाव होता है। द्रव्य और गुण के मध्य भी परस्पर अतद्भाव होता है, गुण और पर्याय के मध्य परस्पर अतद्भाव होता है। द्रव्य और पर्याय
ग्यारहवाँ प्रवचन
१७३ के मध्य भी अतद्भाव होता है; परंतु दो द्रव्यों के मध्य अत्यंताभाव होता है। ____ इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि एक द्रव्य के द्रव्य-गुण-पर्यायों के बीच परस्पर अतद्भाव और दो द्रव्यों के बीच अत्यन्ताभाव होता है।
इसके संदर्भ में गुरुदेवश्री का एक प्रभावी वाक्य है - ‘भावे भेद छे' । इसका अर्थ यह है कि द्रव्य-क्षेत्र एवं काल की अपेक्षा भेद नहीं है, मात्र भाव की अपेक्षा भेद है। ऐसे भेद को अतद्भाव कहते हैं और जहाँ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव - चारों की अपेक्षा भेद हो, वहाँ अत्यंताभाव होता है।
जिनवाणी में 'भाव' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - इन चारों को मिलाकर भी भाव शब्द का प्रयोग होता है और तीन को छोड़कर अकेले भाव के अर्थ में भी भाव शब्द का प्रयोग होता है। ___ अत: जहाँ 'भाव' शब्द का प्रयोग हो, वहाँ उसका अर्थ समझने/ करने में विशेष सावधानी की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त भाव शब्द का प्रयोग आत्मा में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेषादिक भावों के लिए भी किया जाता है। जब ऐसा कहा जाता है कि जिसके जैसे भाव होंगे, उसकी गति भी वैसी ही होगी; तब वहाँ प्रयुक्त भाव शब्द राग-द्वेष भाव के अर्थ में ही समझना चाहिए।
ऐसे ही परिणाम शब्द हैं, जिसके अनेक अर्थ होते हैं। परिणाम मात्र परिवर्तन को ही नहीं कहा जाता; अपितु द्रव्य और गुणों को भी परिणाम कहा जाता है।
विशेषतः प्रवचनसार के इस प्रकरण में आगे इसकी चर्चा है कि उत्पाद भी परिणाम है, व्यय भी परिणाम है और ध्रौव्य भी परिणाम है।
हमारी इन शब्दों के अर्थ में जो संकुचित दृष्टि हुई है, उसके कारण हम एक विशिष्ट अर्थ में ही इन शब्दों का अर्थ समझते हैं।
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