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प्रवचनसार का सार हो जाता है। इसमें उस पानी की मूल गंध नहीं रहती और न ही उसका मूल स्वभाव रहता है। इसप्रकार उस पानी का पराभव हुआ; क्योंकि उसका मूलस्वभाव तिरोहित हो गया है।
इसीप्रकार इस आत्मा का पराभव इस मनुष्य पर्याय में जुड़ जाने से है। यह आत्मा मोह-राग-द्वेषभावों में से निकला है; इसलिए इसका पराभव हुआ है। आचार्य ने यहाँ संयोग पर अपराध नहीं मड़ा है।
आचार्य यहाँ कह रहे हैं कि पानी नीम में चढ़ा हुआ है अर्थात् नीम में भी पानीपन है, गीलापन है। उसमें से हम नीम की पत्तियों का रस निकालें, चन्दन का रस निकालें - इसमें उसने तीन चीजें खोई हैं।
पानी ने अपना स्वाद खोया है. अपनी गंध एवं प्रवाही स्वभाव खोया है; क्योंकि वह वृक्ष में गया एवं उसी में रम गया। पानी का जो बहना स्वभाव था, वह बंद हो गया; जितना पानी उन वृक्षों ने सोख लिया, उस पानी का प्रवाही स्वभाव खतम हो गया।
उसीप्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से अमूर्तत्व से मूर्तत्व हो गया; तब वह अमूर्तत्व, निरूपराग विशुद्धिमत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता। यही इस जीव की समस्या का महत्त्वपूर्ण कारण है।
इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि आत्मस्वभाव के पराभव का कारण शरीरादि का संयोग नहीं है; अपितु शरीरादि संयोगों में आत्मा का अपनापन है, उन्हें अपना जानना-मानना है, उन्हीं से जुड़ जाना है, उन्हीं में रम जाना है।
यह प्रवचनसार की अनूठी शैली है; जिसमें आचार्यदेव ने प्रथम इस जीव को भावकर्म का कर्ता, फिर द्रव्यकर्म का कर्ता एवं तत्पश्चात् शरीरादिक का कर्त्ता सिद्ध किया; क्योंकि यदि सबका ही अकर्ता है तो यह संसार ही नहीं होना चाहिए था। ऐसे अकर्त्ताभाव को तो सांख्यमत स्वीकार करता है।
समयसार में प्रश्नोत्तर की शैली में जयसेनाचार्य ने यह सिद्ध किया कि यह आत्मा पर को जानता ही नहीं है - ऐसी मान्यता तो बौद्धों की है।
चौदहवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार पर चर्चा चल रही है। प्रकरण यह चल रहा है कि मनुष्यादि पर्यायों में एकत्वबुद्धि ही पर्यायमूढ़ता है।
इसी प्रकरण में अब आचार्य यह कह रहे हैं कि इन मनुष्यादि पर्यायरूप दुर्दशा के जिम्मेदार हम ही हैं; इसके कर्ता, कर्म, करण हम ही हैं। इस दुर्दशा का अभाव करके जो मोक्षपर्याय प्रगट होगी; उसके कर्ता-धर्ता भी हम ही होंगे; इसमें किसी परद्रव्य अथवा कर्म का दोष नहीं है। परद्रव्य के नाम पर हम अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहें, यह उचित नहीं है। इसे आचार्य १२२वीं गाथा की टीका में स्पष्ट करते हैं -
"प्रथम तो आत्मा का परिणाम वास्तव में स्वयं आत्मा ही है; क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्ता होने से परिणाम से अनन्य हैं और जो उसका (आत्मा का) तथाविध परिणाम है, वह जीवमयी ही क्रिया है; क्योंकि सर्वद्रव्यों की परिणामलक्षण क्रिया आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है और फिर, जो (जीवमयी) क्रिया है, वह आत्मा के द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होने से कर्म है। इसलिए परमार्थतः आत्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है; किन्तु पुद्गलपरिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।"
यहाँ आचार्य ने ‘परमार्थतः' इस शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट किया है कि निश्चय से भगवान आत्मा भावकर्म का ही कर्ता है। यहाँ अशुद्धनिश्चयनय की विवक्षा है। इस नय की विवक्षा से रागादिक का कर्ता भगवान आत्मा को कहा जाता है। द्रव्यकर्म का कर्ता भगवान आत्मा को नहीं कहा गया है। समयसार ग्रन्थ में भी इस आशय को व्यक्त किया गया है।
नाटक समयसार में इस विषय को इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
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