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प्रवचनसार का सार
नहीं हूँ; पर यह मुख्य समस्या नहीं है। समस्या तो देहादिक में एकत्वबुद्धि की है, जिसका निर्धार करना है; इसीलिए जिसे उदाहरणस्वरूप बनाया गया है। जीव की मनुष्यादिपर्यायें क्रिया का फल है । क्रिया का फल अर्थात् इस भगवान आत्मा ने स्वयं की आराधना नहीं की; इसलिए यह समस्या उत्पन्न हुई है।
प्रश्न यह है कि कभी मनुष्य, कभी देव, कभी नारकी ऐसा फर्क और मनुष्य में भी कभी बालक, कभी जवानी, कभी बुढ़ापा, कभी बीमार, कभी स्वस्थ ऐसा फर्क क्यों दिखता है?
इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि जीव की मोहसहित क्रिया एक सी नहीं होती है, राग-द्वेष एकसा नहीं होता, मिथ्यात्व भी एकसा नहीं होता; इनमें निरन्तर उतार-चढाव तारतम्य बना रहता है। किसी से राग-द्वेष होता है; उसमें भी तारतम्यता बनी रहती है; परन्तु वीतरागी क्रिया तो अनन्तकाल तक एक सी होती है, इसलिये सिद्धपर्याय तो अनन्तकाल तक एकसी रहती है; क्योंकि वीतरागी क्रिया का फल सिद्धपर्याय है।
जो मनुष्यादि पर्यायों में विविधता देखी जाती है; वह इसके भावों की विविधता का परिणाम है; मोह की क्रिया की विविधता का परिणाम है । इस जीव को मोह की क्रिया की विविधता के कारण ही विविध संयोगों की प्राप्ति होती है।
कई लोग ऐसा प्रश्न करते हैं कि भाईसाहब बाढ़ आई और इतने सारे लोग एकसाथ मारे गए; क्या इतने लोगों ने एकसाथ ऐसा पाप किया होगा ? एकसा ही पाप उनके उदय में आया था क्या ?
उनसे कहते हैं कि ऐसा भी हो सकता है, इसमें कौन-सी गजब की बात है ? हमारे भाव भी एक से हो सकते हैं। अमरीकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति को फटकार सुनाई तो सभी हिन्दुस्तानी एकसाथ खुश होते हैं; उससे होनेवाला पापबंध भी सभी को एक-सा ही होगा।
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तेरहवाँ प्रवचन
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हमें तो हमारे जीवन में एकाधबार ही ऐसा देखने को मिलता है कि बाढ़ आ गई और लाखों मर गए; लेकिन हमें पता नहीं है कि हम प्रतिदिन ऐसी बाढ़ ला रहे हैं। हम ऊपर मुँह करके पेशाब करने बैठ जाते हैं एवं नीचे हजारों चींटियाँ हैं; उनके लिए तो यह गंगाजी में बाढ़ ही आ गई है। स्थान-स्थान पर लाखों जीव एकसाथ मरते हुए देखे जा सकते हैं। जो आलू और जमीकंद खाते हैं, वे उसे चाय जैसा उबालते हैं; उसमें लाखों जीव एकसाथ उबलते हैं, मरते हैं।
यहाँ आप मात्र कभी-कभार की घटनाओं के संदर्भ में सोच रहे हैं; लेकिन ऐसी घटनाएँ प्रतिदिन हो रही हैं। प्रतिदिन लाखों जीवों के एक भाव हो रहे हैं।
एक से भावों के कारण एकरूपता और अलग-अलग प्रकार के भावों के कारण भिन्नता दिखाई देती है। मनुष्यादि पर्यायों में जहाँ एकरूपता नहीं है, वहाँ निरंतर पृथक्-पृथक् परिवर्तन देखने में आता है। - ऐसी ये जो पर्यायें हैं, ये इसकी क्रिया का ही फल हैं।
वस्तुतः कर्म पुद्गल ही है; परंतु उस कर्म के उदय से हम में जो मोह-राग-द्वेष भाव होते हैं; उन्हें भावकर्म कहा जाता है। इसमें ऐसा नहीं है कि इस जीव ने राग-द्वेष किये थे ये भी इसका कार्य है और कर्म भी इसका कार्य है। आचार्य यहाँ राग का कर्त्ता भगवान आत्मा को बताकर कर्मचेतना, कर्मफलचेतना आदि का विश्लेषण करेंगे। पुद्गल कर्म के कार्यभूत ये मनुष्यादि पर्यायें हैं अर्थात् ये मनुष्यादि पर्यायें नोकर्म हैं ।
इसप्रकार मनुष्यादि पर्यायें जो मिली हैं, वे ज्ञानावरणादि कर्म के उदय में मिली हैं। इन मुनष्यादि गति में जाना इस जीव की क्रिया का फल है। इससे आशय यही है कि इस जीव को किसी ने नरक नहीं भेजा है, इस जीव को कोई स्वर्ग नहीं भेजेगा। इस जीव के कर्म के अनुसार ही यह नरक या स्वर्ग में जाता है। इसप्रकार प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से