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प्रवचनसार का सार अब, यदि वक्तव्य अर्थात् कह सकते हैं तो क्या कह सकते हैं ? कह सकनेवाले तीन बिन्दु - 'है' 'नहीं है' और दोनों। जैसे - 'नित्य हैं' 'नित्य नहीं है' और 'नित्यानित्य है। ऐसे ही - 'भिन्न हैं' 'भिन्न नहीं है' और 'भिन्नाभिन्न है।' इसप्रकार वक्तव्य के तीन भंग हुए। 'बिल्कुल ही नहीं कह सकते।' यह चौथा अवक्तव्य भंग हुआ। अस्ति नहीं कह सकते हैं, नास्ति नहीं कह सकते हैं और दोनों नहीं कह सकते - ये तीन भंग, कुल मिलाकर अवक्तव्य के चार भंग हुए। वक्तव्य के तीन भंग और अवक्तव्य के चार भंग इसप्रकार सात भंग होते हैं।
वक्तव्य के भंग के साथ 'वक्तव्य' शब्द नहीं लगता है; परंतु 'अवक्तव्य' के भंग के साथ अवक्तव्य' शब्द लगता है। वक्तव्य के साथ इसलिए नहीं लगता है; क्योंकि वह कहा जा रहा है। जब कहा ही जा रहा है तो फिर 'मैं कह रहा हूँ।' - ऐसा कहने की क्या जरूरत है; परंतु यदि नहीं कहना है तो मैं तुमसे कुछ नहीं कहूँगा' - ऐसा कहने की जरूरत है।
जैसे - मैंने आपसे पूछा कि दो और दो कितने होते हैं ? तब यदि आपको उत्तर देना है तो आपके बोल होते हैं - चार । यहाँ मैं उत्तर देता हूँ; ऐसा कहने की जरूरत नहीं है; परंतु यदि आपको उत्तर नहीं देना है तो आपके बोल होते हैं कि - 'मैं कुछ नहीं बोलूँगा' अर्थात् अवक्तव्य ऐसा कहने की आवश्यकता रहती है; परंतु यदि उत्तर देना है तो वक्तव्य ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं रहती है।
इसप्रकार (१) स्याद् अस्ति, (२) स्याद् नास्ति, (३) स्याद् अस्तिनास्ति - ये तीन वक्तव्य के भंग हैं और (४) स्याद् अवक्तव्य, (५) स्याद् अस्ति अवक्तव्य, (६) स्याद् नास्ति अवक्तव्य, (७) स्याद् अस्तिनास्ति अवक्तव्य - ये चार अवक्तव्य के भंग हैं।
आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा, कारिका-१०८ में स्पष्ट किया है कि - 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् - निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और सापेक्ष नय सम्यक् और सार्थक होते हैं।'
तेरहवाँ प्रवचन
नयों की चर्चा के समय कोई ऐसा भी कहता है कि नय लगा देने से अथवा अपेक्षा लगा देने से बात ढीली पड़ जाती है।
अरे भाई! गजब करते हो! जैनदर्शन के अतिरिक्त विश्व में अन्य किसी भी दर्शन में नय और अपेक्षा नाम की चीज नहीं है। यह जैनदर्शन की ही अद्भुत निधि है, जो विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। जैनदर्शन का न्यायशास्त्र और न्याय के प्रकांड विद्वान् अकलंकादि आचार्य जीवनभर सम्पूर्ण सामर्थ्य से नयप्रकरण को ही सिद्ध करने में लगे रहे, समर्पित रहे; क्योंकि नय के बिना वस्तु की सिद्धि हो ही नहीं सकती है। नय के बिना एक वाक्य बोलना भी संभव नहीं है।
आचार्यों ने यह कहा है कि नयों के बिना, अपेक्षा के बिना; जो भी कहें, वह मिथ्या ही होगा। निरपेक्ष नय मिथ्या है और सापेक्षनय वस्तु की सिद्धि करनेवाले हैं। इसलिए आचार्यदेव ने अपेक्षा रहित एवकार के प्रयोग को जहरीला कहा है। ‘आत्मा नित्य ही हैं' - इसमें अपेक्षा नहीं है तो यह प्रयोग जहरीला है।
इसे ही ध्यान में रखकर आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में १५वीं कारिका को प्रस्तुत किया -
सदेव सर्वं को नेच्छेत्, स्वरूपादि चतुष्टयात् ।
असदेव विपर्यासान्न, चेन्न व्यवतिष्ठते ।।१५।। ऐसा कौन है जो सभी पदार्थों को स्वरूपादि चतुष्टय की दृष्टि से सत् और पररूपादिचतुष्टय की दृष्टि से असत् रूप ही अंगीकार न करे ? यदि कोई ऐसा नहीं मानता है तो उसकी बात सत्य नहीं है। ___आचार्यदेव ने यहाँ यह कहा है कि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से वस्तु को सत् नहीं माननेवाला और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से वस्तु को असत् नहीं माननेवाला जैन नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि अस्तिवाला भंग स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा से है एवं नास्तिवाला भंग पररूपचतुष्टय की अपेक्षा से है।
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