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प्रवचनसार का सार
१९४ जो अभी छह अरब व्यक्ति दिखाई देते हैं; उनमें से दो-तिहाई लोग कौन-से हैं, जो देवगति में जायेंगे?
यहाँ हमारे प्रवचन में आनेवाले जीव शुद्ध एवं सात्त्विक जीवन बितानेवाले लोग हैं - यदि ये लोग ही देवगति में नहीं जायेंगे तो क्या मांसभक्षी लोग देवगति में जायेंगे?
इसलिए भाई हम सबकी तो देवगति में जाने की गारंटी है; इसलिए चिंता करने की बात नहीं है। यहाँ देवगति प्राप्त करने के लिए यह चर्चा नहीं चलती है, यहाँ तो मोक्षमार्ग की चर्चा चलती है, जो महादुर्लभ है। उसी के लिए यह सम्पूर्ण प्रयत्न है। यह सब देवगति के लिए नहीं है। देवगति तो मुफ्त में ही मिलनेवाली चीज है।
अब दुनिया में जितने जीव-जंतु दिखाई देते हैं; उनमें नारकी तो देवगति में जाते नहीं और देव भी देवगति में नहीं जाते। अब जो मनुष्य
और तिर्यंच शेष हैं; उनमें तिर्यंचों से अधिक मुख्यता मनुष्य को ही मिलेगी।
अब जो आज के इस विश्व में छह अरब मनुष्य दिखाई दे रहे हैं; उनका आचरण, खान-पान और श्रद्धा देखकर यह कहा जा सकता है कि जैनियों को तो देवलोक मिलेगा ही।
पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद । यहाँ पूर्व पर्याय की अपेक्षा उत्तरपर्याय और उत्तरपर्याय की अपेक्षा पूर्वपर्याय नाम दिया जाता है। स्थिति तो यह है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य प्रतिसमय विद्यमान है। उत्पाद भी सत् है, व्यय भी सत् है एवं ध्रौव्य भी सत् है। 'उत्पादव्यय-ध्रौव्य युक्तं सत्' इसमें तीनों के मिश्रण का नाम सत् है।
बिना प्रयत्न के प्रतिसमय पलटना - यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है; जो प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्य में होती रहती है। आत्मा भी एक द्रव्य है; इसलिए वह भी प्रतिसमय पलटता रहता है।
कई व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि मुझे कुछ नया करना है, मुझे अपनी
बारहवाँ प्रवचन इमेज बनानी है; तब आचार्य कहते हैं कि अरे भाई! प्रतिसमय सबकुछ नया ही उत्पन्न होता है, पुराना कुछ होता ही नहीं है। प्रतिसमय नूतन रूप में उत्पन्न होना - यह प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है।
पंचवटी में सीता व राम अंदर कुटिया में सोए हुए थे और लक्ष्मणजी पहरेदारी कर रहे थे। वे पहरेदारी करते हुए सोच रहे हैं कि भाई ! हमने जिंदगी में क्या किया है ? कुछ भी तरक्की, उन्नति नहीं की है।
'मैथिलीशरणजी गुप्त' इन शब्दों में लक्ष्मण के अभिप्राय को व्यक्त करते है - ___ 'यदि परिवर्तन ही उन्नति है, तो हम भी बढ़ते जाते हैं।'
यदि उन्नति का अर्थ परिवर्तन है तो हमारी भी उन्नति हो रही है; क्योंकि प्रतिसमय परिवर्तन हो ही रहा है। हमारी यह तरक्की ही है कि हम राजपाठ छोड़कर जंगल में आ गये हैं।
इस परिभाषा के द्वारा तो हम भी प्रतिसमय बढ़ रहे हैं। जब यहाँ आए थे तो २५ वर्ष के थे और अब ५ वर्ष के पश्चात् ३० वर्ष के हो गए। क्या हमने २५ से ३० वर्ष का होने के लिए कुछ किया था ? कुछ नहीं करो तो भी हम प्रतिसमय बढ़ रहे हैं। यदि बढ़ना ही उन्नति है, तरक्की है तो तरक्की होते-होते ही हम बड़े हो गये हैं और तरक्की होते-होते ही मर जायेंगे। यह भी तो एक बढ़ना है। जब अंतिम समय आता है तो उसे नाश क्यों कहा जाता है ? जब ८० वर्ष की उम्र तक बढ़ते गए तो कहते हैं कि इनका अनुभव बढ़ा, ज्ञान बढ़ रहा है। भाई! ये तो बहुत बड़े आदमी हो गए और अंतिम समय में उसे ही 'मरे' - ऐसा कहा जाता है।
प्रतिसमय नूतन उत्पाद होना - यह इस जीव का स्वभाव है एवं पुराना नष्ट होना भी इसका स्वभाव है।
आचार्य कहते हैं कि यह जीव कभी पूर्णत: नष्ट न होकर भी प्रतिसमय परिवर्तित होता रहता है।
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