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प्रवचनसार का सार
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बारहवाँ प्रवचन
सौभाग्य की बात यह है कि पंचास्तिकाय एवं प्रवचनसार दोनों ही कुन्दकुन्दचार्य के ग्रन्थ हैं। दोनों ग्रन्थों में द्रव्य-गुण-पर्याय की अभिन्नता बताई गई है।
द्रव्य से पर्यायों को सर्वथा भिन्न माननेवालों को इन गाथाओं में व्यक्त भाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
अब ११२वीं गाथा के भावार्थ का अध्ययन करते हैं, जो इसप्रकार
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यहाँ यह लक्ष्य में रखना चाहिये कि द्रव्य और पर्यायें भिन्न-भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं; इसलिए पर्यायों की विवक्षा के समय भी, असत्-उत्पाद में, जो पर्यायें हैं; वे द्रव्य ही हैं और द्रव्य के विवक्षा के समय भी, सत्उत्पाद में जो द्रव्य है; वे पर्यायें ही हैं।"
यहाँ द्रव्य की दृष्टि है। पर्याय तो एकसमय में बंधी है। आगे वह थी ही नहीं और भविष्य में भी वह नहीं रहेगी। जब हमारी दृष्टि अनादिअनंत वस्तु पर जाएगी, तभी यह वर्तमान पर्याय द्रव्य में विद्यमान है, वह स्वकाल में प्रगट हुई है - ऐसा समझ सकते हैं।
यहाँ पर्यायों को अभाव करके कथन नहीं किया गया है; अपितु पर्यायों को गौण करके कथन किया है। गौण करने से यह आशय है कि उसके बारे में चुप्पी साधना । सिर्फ ज्ञान में, वाणी में ही मुख्य-गौण की व्यवस्था है। मुख्य-गौण की व्यवस्था जिस वस्तु के बारे में की जा रही है; उस वस्तु में कुछ नहीं हो रहा है 'मुख्य-गौण करना' यह इसके ज्ञान की ही प्रक्रिया का नाम है। इस व्यवस्था को इसलिए भी मानना पड़ेगा; क्योंकि दो पर्यायें एकसाथ नहीं रह सकती है; नहीं तो सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन - ये दोनों पर्यायें एकसाथ माननी पड़ेगी।
मुमुक्षुओं को लक्ष्य में रखकर कुन्दकुन्द शतक में पंचास्तिकाय की पाँच गाथाएँ संकलित हैं; जिनका हिन्दी पद्यानुवाद इसप्रकार हैं -
उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत्, सत् द्रव्य का लक्षण कहा। पर्याय गुणमय द्रव्य है, यह वचन जिनवर ने कहा ।।५५।। पर्याय बिन ना द्रव्य हो, ना द्रव्य बिन पर्याय ही। दोनों अनन्य रहें सदा, यह बात श्रमणों ने कही।।५६।। द्रव्य बिन गुण हो नहीं, गुण बिना द्रव्य नहीं बने। गुण द्रव्य अव्यतिरिक्त है, यह कहा जिनवरदेव ने ।।५७।। उत्पाद हो न अभाव का, ना नाश हो सद्भाव में। उत्पाद व्यय करते रहें, सब द्रव्य गुण पर्याय में ।।५८।।
“जीव मनुष्य-देवादिक पर्यायरूप परिणमित होता हुआ भी अन्य नहीं हो जाता, अनन्य रहता है, वह का वही रहता है; क्योंकि वही यह देव का जीव है, जो पूर्वभव में मनुष्य था और अमुक भव में तिर्यंच था' ऐसा ज्ञान हो सकता है।
इसप्रकार जीव की भाँति प्रत्येक द्रव्य अपनी सर्व पर्यायों में वह का वही रहता है। अन्य नहीं हो जाता, अनन्य रहता है। इसप्रकार द्रव्य का अनन्यपना होने से द्रव्य का सत्-उत्पाद निश्चित होता है।"
समयसार की १४वीं गाथा में जो अनन्य का बोल आया है; उसका भी यही आशय है कि नर-नारकादि पर्यायों में रहकर भी वह अन्यअन्य नहीं हो जाता अनन्य ही रहता है; उन पर्यायों में जो एकसा रहा; वह मैं हूँ और जो बदल गया, वह मैं नहीं हूँ।
जहाँ-जहाँ भी आचार्यदेव ने अन्य और अनन्य की चर्चा की है, वहाँ-वहाँ नर-नारकादि पर्यायें ही ली हैं। _____ मैं मनुष्य नहीं हूँ, मैं देव नहीं हूँ, मैं नारकी नहीं हूँ, मैं राजा नहीं हूँ; ऐसा कहकर असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि का ही निषेध किया है। इस प्रकरण को इस ११३वीं गाथा के भावार्थ में स्पष्ट किया है
“जीव के अनादि-अनन्त होने पर भी, मनुष्यपर्यायकाल में देवपर्याय की या स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धपर्याय की अप्राप्ति है अर्थात् मनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है; इसलिये वे पर्यायें अन्य-अन्य हैं। ऐसा होने से उन
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