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प्रवचनसार का सार
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अब ९५वीं गाथा को समझते हैं; जिसमें आचार्यदेव ने द्रव्य के स्वरूप की चर्चा की है।
अपरिच्चत्तसहावेणु प्पादव्वयधुवत्तसंबद्धं । गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ।।९५ ।।
(हरिगीत ) निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययध्रुवयुक्त गुण
पर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें।।९५।। स्वभाव को छोड़े बिना जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसंयुक्त हैं तथा गुणयुक्त और पर्यायसहित हैं, उसे 'द्रव्य' कहते हैं।
'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' 'सद् द्रव्यलक्षणम्' इसप्रकार तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की परिभाषा तीन सूत्रों में बताई है। यहाँ एक ही गाथा में ये तीनों सूत्र समाहित हैं।
'स्वभाव को छोड़े बिना' - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने यहाँ एक और विशेष बात बताई है।
द्रव्य का लक्षण सत् है। सत् को सत्ता अथवा अस्तित्व भी कहते हैं। इसप्रकार अस्तित्व द्रव्य का लक्षण है। द्रव्य अनंतानंत हैं। उनमें जीव अनंत हैं, पुद्गल अनंतानंत हैं, धर्म, अधर्म एवं आकाशद्रव्य एक-एक हैं तथा कालद्रव्य असंख्यात हैं।
इन सबमें द्रव्य का अस्तित्व लक्षण घटित होता है।
अस्तित्व अर्थात् सत्ता । सत्ता और अस्तित्व दो-दो प्रकार के हैं - १. महासत्ता २. अवान्तरसत्ता। १. सादृश्यास्तित्व २. स्वरूपास्तित्व । महासत्ता सादृश्यास्तित्व का ही दूसरा नाम है एवं अवान्तरसत्ता स्वरूपास्तित्व का दूसरा नाम है।
अपने स्वभाव को छोड़े बिना - इस पद का अर्थ यह है कि वस्तु स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना सादृश्यास्तित्व में सम्मिलित है।
मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि आप दिगम्बर हैं या जैन हैं ?
नौवाँ प्रवचन
हम जैन भी हैं और दिगम्बर भी हैं; क्योंकि दिगम्बर जैन हैं। दिगम्बर और जैन - दोनों का एक साथ होने में कोई विरोध नहीं है।
इसीप्रकार स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना हम सादृश्यास्तित्व में शामिल हैं। इसप्रकार हम अवान्तरसत्ता और महासत्ता - दोनों से समद्ध हैं। क्योंकि हम ज्ञानानन्दस्वभावी है। इसमें ज्ञानानन्दस्वभाव हमारी अवान्तरसत्ता है और हैं' अर्थात् अस्तित्व महासत्ता है। ___हम चेतन होकर भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से संयुक्त और गुणपर्याय से युक्त द्रव्य हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त और गुण-पर्यायों से सहित होना हमारी महासत्ता है और ज्ञानानन्दस्वभावी चेतन होना हमारी अवान्तर सत्ता है। महासत्ता से हम सबसे जुड़े हैं और अवान्तरसत्ता की वजह से हमारा अस्तित्व स्वतंत्र है।
इसप्रकार हमने स्वरूपास्तित्व को छोड़ा नहीं है और हम सादृश्यास्तित्व में शामिल हैं। हम ऐसी महासत्ता के अंश हैं, जिसमें स्वरूपास्तित्व को छोड़ना जरूरी नहीं है। मैं अपने स्वरूपास्तित्व में भी शामिल हूँ एवं सादृश्यास्तित्व में भी शामिल हूँ।
इसप्रकार सभी जीव द्रव्य सादृश्यास्तित्व एवं स्वरूपास्तित्व से युक्त हैं। सभी का अस्तित्व समान है। आप भी अनंतगुणवाले हो एवं मैं भी अनंतगुणवाला हूँ, पुद्गल भी अनंतगुणवाला है। आप भी गुणपर्याय से युक्त हैं एवं मैं भी गुणपर्याय से युक्त हूँ। महासत्ता की अपेक्षा हम, तुमसभी एक हैं, एक से हैं; अत: इस अस्तित्व का नाम सादृश्यास्तित्व है।
सादृश्य अर्थात् एक-सा होना । एक से होने में भी जगत में एक हैं' - ऐसा व्यवहार किया जाता है। हम सभी जैन एक हैं। हममें भी जैनत्व की श्रद्धा है और आपमें भी जैनत्व की श्रद्धा है। इसप्रकार हम कहना तो यही चाहते हैं कि 'हम एक से हैं।' परंतु सादृश्यास्तित्व की लोक में ऐसी भाषा है कि उसे एक हैं' - ऐसा ही कहा जाता है; क्योंकि यदि 'एक-सा' ऐसा कहते हैं तो उसमें भेद नजर आता है; परंतु 'एक' ऐसा कहने में एकता नजर आती है।
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