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प्रवचनसार का सार
१५४ अतद्भाव होता है और जिनका स्वरूपास्तित्व अलग-अलग होता है; उन द्रव्यों में परस्पर पृथक्त्व होता है।
सादृश्यास्तित्व अर्थात् महासत्ता की अपेक्षा हम सब एक हैं। इसप्रकार परपदार्थों से हमारा हैं' का सम्बन्ध है, अस्तित्व का संबंध है; परंतु इसमें प्रत्येक का अस्तित्व पृथक्-पृथक् है - यही स्वरूपास्तित्व है।
यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय को मिलाकर एक इकाई बनाई गई है।
यह समयसार में वर्णित इकाई नहीं है; जिसमें द्रव्य से पर्याय को भिन्न, गुण को भिन्न एवं गुणभेद को भी भिन्न कहा गया है। यहाँ द्रव्यगुण-पर्याय को मिलाकर एक इकाई है, जिसे स्वरूपास्तित्व कहा गया है।
हमसे अतिरिक्त जो द्रव्य हैं, उनके साथ हमारी जो एकता की कल्पना है, वह किस आधार पर है, उसमें क्या हेतु है ?
इसमें हेतु मात्र इतना है कि वह भी है और हम भी है; इसप्रकार मात्र अस्तित्व का हेतु है। इसप्रकार मात्र 'है' की रिश्तेदारी है। मेरे
और गधे के सींग में कोई संबंध नहीं है; क्योंकि गधे के सींग की न तो अवान्तरसत्ता है और न ही महासत्ता है; क्योंकि वह है ही नहीं
और मैं हूँ। इसप्रकार तुम भी हो और मैं भी हूँ - इसप्रकार यहाँ है' का संबंध है।
अब आचार्य कह रहे हैं कि जिसने मात्र अस्तित्व संबंध के आधार पर स्वरूपास्तित्व को भूलकर किसी पर से अपनापन स्थापित कर लिया वह मिथ्यादर्शन का धारी मिथ्यादृष्टि है।
समयसार में यह बताया था कि सादश्यास्तित्व के आधार पर स्वरूपास्तित्व को भूलकर संबंध स्थापित कर लेना मिथ्यात्व है तथा प्रवचनसार में यह बताया जा रहा है कि उससे मिथ्यात्व न हो जाय - इस डर से उस महासत्तावाले तथ्य से इन्कार करना भी मिथ्यादर्शन
नौवाँ प्रवचन सब एक हैं' - इसमें शुद्धमहासत्ता की अपेक्षा है। इसके पश्चात् 'हम सब मनुष्य हैं' - इसमें भी अशुद्धमहासत्ता की अपेक्षा है।
'हम सब ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा हैं' - यह भी महासत्ता ही है, सादृश्यास्तित्व ही है। अवान्तरसत्ता अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के बाहर नहीं निकलती है; जबकि महासत्ता में सबको शामिल किया गया है। इसप्रकार महासत्ता और अवान्तरसत्ता के मध्य लाखों सत्ताएँ हैं।
जिसमें सबकुछ आ जाय वह शुद्धमहासत्ता है और जिसमें सबकुछ तो न आवे; पर बहुतकुछ आ जाय; वह अशुद्धमहासत्ता है। हम सब हैं' यह शुद्धमहासत्ता का उदाहरण है और हम सब मनुष्य हैं' - यह अशुद्धमहासत्ता का उदाहरण है।
शुद्धसंग्रहनय में शुद्धमहासत्ता की विवक्षा है और अशुद्धसंग्रहनय में अशुद्धमहासत्ता की विवक्षा है। ऋजुसूत्रनय मात्र अवान्तरसत्ता को ग्रहण करता है। व्यवहारनय शुद्धमहासत्ता में तबतक भेद करता है कि जबतक अवान्तरसत्ता तक न पहुँच जावें।
ध्यान रहे यह व्यवहारनय निश्चय-व्यवहारवाला व्यवहारनय नहीं है; यह तो नैगमादि सप्त नयों में आनेवाला व्यवहारनय है।
'हम सब एक हैं' - ऐसा कहा, इसमें हैं' के आधार पर शुद्ध महासत्ता है अर्थात् इसमें सब सन्मात्र एक हो गए हैं। फिर 'चेतन' ऐसा भेद किया है, उसमें चेतनता भी महासत्ता का ही भेद है, इसमें अवान्तर सत्ता नहीं है; क्योंकि चेतनता सब जीवों में है; जबकि दो जीवों की अवान्तरसत्ता पृथक्-पृथक् है। मेरी चेतना अलग है एवं आपकी चेतना अलग है; इसप्रकार हम अवान्तरसत्ता तक तो आए नहीं। यह तो मात्र जीवत्व एवं द्रव्यत्व की पहचान है। यहाँ 'स्व' की पहचान नहीं है।
'जीवत्व' यह मेरी पहचान नहीं है। जीवत्व इस लक्षण में अनंत जीव समाहित होते हैं। फिर जीव से अलग होकर मनुष्य' पर आए; मनुष्य देवों तथा नारकियों से पृथक् हैं; किन्तु मनुष्य भी २९ अंकप्रमाण
ही है।
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महासत्ता से लेकर अवान्तरसत्ता के मध्य अनन्त सत्ताएँ हैं। 'हम