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प्रवचनसार का सार अतः हमें यह अपने ज्ञान में समझ लेना चाहिए कि हम जो ऐसा कह रहे हैं कि हम सब जैन एक हैं, हम सब भारतीय एक हैं - यह सब सादृश्यास्तित्व की विवक्षा से कहा जा रहा है। __इसपर यदि कोई ऐसा कहे कि हम सब एक हैं तो यह दिगम्बर और श्वेताम्बर का चक्कर क्यों लगा रखा है ? हम सब यदि एक हैं तो ऐसा भेद क्यों है ?
यद्यपि हम सादृश्यास्तित्व की अपेक्षा से एक हैं; परंतु स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा से हम किसी से भी एक (अभेद) नहीं है। यह सादृश्यास्तित्व का जो कथन जिनागम में किया है, वह स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना है। हमने उस स्वरूपास्तित्व को छोड़कर पर के साथ एकत्व स्थापित कर लिया है - यही मिथ्यादर्शन है, यही पर्यायमूढता है, परसमयपना है। ___मैं मनुष्य हूँ' - ऐसा जब कहा जाता है, तब वहाँ मात्र जीवद्रव्य के ही गुण-पर्याय समाहित नहीं हैं, अपितु पुद्गलद्रव्य के गुण-पर्याय भी समाहित हैं। इसप्रकार यहाँ पर से एकत्व स्थापित किया जाता है। इस पर्याय से जो एकत्व का संबंध स्थापित है, वह संबंध असद्भूत है। वस्तुत: उससे हमारा संबंध ही नहीं है।
दो द्रव्यों के मध्य जो भेद है, वह पृथक्त्व है एवं एक ही द्रव्य में द्रव्य-गुण-पर्याय के मध्य जो भेद बताया जाता है. वह अन्यत्व है।
प्रवचनसार में अमृतचन्द्राचार्य ने इसे इसप्रकार परिभाषित किया है
“विभक्तप्रदेशत्वं पृथक्त्वलक्षणम् - प्रदेशों का अलग-अलग होना पृथक्त्व का लक्षण है।” तथा “अतद्भाव: अन्यत्वलक्षणम् - अतद्भाव अन्यत्व का लक्षण है। भाव की भिन्नता होना अन्यत्व का लक्षण है।"
अतद्भाव में द्रव्य-क्षेत्र और काल की भिन्नता अपेक्षित नहीं है, मात्र भाव की भिन्नता ही अपेक्षित है। जैसे - ज्ञानगुण और श्रद्धागुण का द्रव्य-क्षेत्र एवं काल एक है; परंतु भाव भिन्न है। इसमें ज्ञानगुण का
नौवाँ प्रवचन कार्य या भाव जानना है और दर्शनगुण का कार्य या भाव देखना है। यह अतद्भाव है।
हमारा कोई पड़ौसी है तो हम कहते हैं कि यह हमारा मुँहबोला भाई है और वह दूसरा मेरा सगा भाई है।
सगाभाई और मुँहबोले भाई में क्या फर्क है ?
जिनके माता-पिता एक हैं, भाई-बहिन एक हैं, मामा-मामी एक हैं, बुआ-फूफा एक हैं; यहाँ तक कि जिनका घर एक है, वह सगा अर्थात् सहोदर भाई है। जब ये माँ-बाप आदि सभी भिन्न-भिन्न हों, तब वह मुंहबोला/कहने का भाई है।
कहने की बहन में और सगी बहन में भी यही अंतर है। मुँह बोली (कहने की) बहन से शादी भी हो सकती है; परंतु सगी बहन से शादी की कल्पना भी संभव नहीं है।
ऐसे ही परद्रव्य के साथ हमारा जो संबंध है, वह कथनमात्र है; क्योंकि हमारा स्वरूपास्तित्व उससे पृथक् है। जिन द्रव्य-गुण-पर्यायों में परस्पर अतद्भाव होता है, उनका स्वरूपास्तित्व एक होता है। ऐसे ही जिनके स्वरूपास्तित्व एक होता है, पृथक्-पृथक् नहीं होता है; उनमें अतद्भाव होता है। जिनका स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न होता है एवं सादृश्यास्तित्व एक होता है, उनमें पृथक्त्व होता है।
दो द्रव्यों के मध्य जो भेद हैं; उसे भी भिन्नता कहा जाता है एवं द्रव्य-गुण-पर्याय के मध्य जो भेद हैं, उसे भी भिन्नता ही कहा जाता है। आत्मा व राग अन्य-अन्य हैं, आत्मा व ज्ञान अन्य-अन्य हैं एवं आत्मा व देह पृथक्-पृथक् हैं।
भिन्न शब्द का प्रयोग दोनों ही अर्थों में किया जाता रहा है। कथन में आत्मा व राग भिन्न-भिन्न हैं - ऐसा भी आता है एवं आत्मा व देह भिन्न-भिन्न हैं - ऐसा भी आता है।
जिनका स्वरूपास्तित्व एक है, उनके द्रव्य-गुण-पर्यायों में परस्पर