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प्रवचनसार कासार
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यहाँ परिणमन का प्रकरण नहीं है। यहाँ दो द्रव्यों में एकता स्थापित करने का प्रकरण है। शरीर और आत्मा के प्रदेश और उन दोनों की एकतारूप मनुष्य पर्याय को द्रव्यपर्याय कहते हैं । द्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि ही भूल है।
'पर्यायमूढ़ परसमय है' - ऐसे प्रकरण के समय हमारा लक्ष्य मात्र गुणपर्याय पर ही जाता है; द्रव्यपर्याय पर हमारा लक्ष्य ही नहीं जाता। हम गुणपर्याय की ही चर्चा करते हैं। हम कहते हैं कि सम्यग्दर्शन गुणपर्याय है एवं उसमें एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व है, केवलज्ञान में एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व है। यह बात भी उचित हो सकती है; परन्तु यहाँ प्रवचनसार में इस बात पर बल नहीं दे रहे हैं।
यहाँ आचार्य जिस प्रकरण पर अधिक जोर दे रहे हैं, उसे अमृतचन्द्राचार्य ने ९४ गाथा की टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया है - ___ 'जो जीव पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्याय का - जो कि सकल अविद्याओं का मूल है; उसका आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना करने में नपुंसक होने से उसी में बल धारण करते हैं (अर्थात् उन असमानजातीयद्रव्यपर्यायों के प्रति ही बलवान हैं), वे जिनकी निरर्गल एकान्तदृष्टि उछलती है ऐसे - 'यह मैं मनुष्य ही हूँ, मेरा ही यह मनुष्य शरीर हैं' इसप्रकार 'अहंकार-ममकार से ठगाए जाते हुए, अविचलितचेतनाविलास मात्र आत्मव्यवहार से च्युत होकर, जिसमें समस्त क्रियाकलाप को छाती से लगाया जाता है ऐसे मनुष्य व्यवहार का आश्रय करके रागी-द्वेषी होते हुए द्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण (परद्रव्यरूप कर्म के साथ युक्त हो जाने से) वास्तव में परसमय होते हैं अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते हैं।' __ आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं इस बात पर विशेष बल दे रहे हैं कि जीवपुद्गलात्मक असमानजातीयद्रव्यपर्याय ही सकल अविधाओं का मूल है। तात्पर्य यह है कि श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र में जो कुछ भी विकृति हुई
दसवाँ प्रवचन है, अविधारूप परिणमन हुआ है; उन सबका मूल असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि है, ममत्वबुद्धि है।
यहाँ केवलज्ञान की बात तो दूर कोई यह भी मानने को तैयार नहीं है कि मैं सम्यग्दर्शन हूँ, मैं केवलज्ञान हूँ, मैं सिद्ध हूँ; लेकिन मैं मनुष्य हूँ, मैं जैनी हूँ, मैं व्यापारी हूँ - ऐसा सभी मान रहे हैं। इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि सकल अविधाओं का मूल असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि अर्थात् उसे अपना जानना है। ___ हमें सुबह से शाम तक उसी की चिन्ता है, उसी के ध्यान में हम दिन-रात मग्न हैं। हम सुबह घूमने के लिए, दौड़ने के लिए जाते हैं, तो वह सब उसके लिए ही करते हैं ? यहाँ घूमने में न तो केवलज्ञान का प्रयोजन है और न सम्यग्दर्शन का ? हम यही चाहते हैं कि हमारी यह असमानजातीयमनुष्यपर्याय और १०-५ वर्ष सरलता से चल जावे । __यद्यपि यह सत्य है कि गुरुदेवश्री ने गुणपर्यायों पर अधिक वजन दिया था। उनका उन पर वजन देना उचित भी था; क्योंकि उनकी तरफ जगत का ध्यान ही नहीं गया था। वे मात्र असमानजातीयद्रव्यपर्याय के सन्दर्भ में ही सोचते थे। इसलिए वह उस समय की अनिवार्य आवश्यकता थी; परन्तु अब उस पर आवश्यकता से अधिक ध्यान चला गया है। अतः इस पर पुन: ध्यान लाना जरूरी है।
अपने बेटे की शादी हो गई है और वह दिनभर बहू के ही कमरे में घुसा रहे तो माता-पिता को यह समझाने का विकल्प आता है कि 'अब तुम्हारी शादी हो गई है, जीवनभर इसके साथ ही रहना है; परन्तु सब रिश्तेदार हैं तो यह सब अच्छा नहीं लगता है। जो मेहमान आए हैं. उनके साथ भी बैठो; उनसे भी मिलो, यह अच्छी बात नहीं है कि तुम बहू के ही कमरे में ही घुसे रहो।' __ लेकिन यदि वही बेटा अपनी पत्नी से बोले ही नहीं तो उन्हीं माता-पिता के माथे पर सल पड़ जाते हैं। तब वे उसी बेटे को ऐसा