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प्रवचनसार का सार तब यह कहता है कि शिवभूति मुनिराज को भी केवलज्ञान हुआ था। उन्होंने मात्र 'तुषमाष भिन्नं जाना था। जैसे तुष भिन्न है और माष भिन्न है - ऐसे ही आत्मा भिन्न है और देह भिन्न है - जब यह जानना हुआ, तब वे आत्मा के अंदर गए और उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है शिवभूति मुनि ने राग से भिन्न है - इसप्रकार क्यों नहीं जाना, उन्हें केवलज्ञान से भिन्नत्व का विकल्प क्यों नहीं आया ?
वस्तुत: शिवभूति को केवलज्ञान से एकत्व का विकल्प ही नहीं था। यह धूल तो हमें-तुम्हें साफ करनी पड़ रही है; क्योंकि हम-तुम इस धूल से धूसरित हुए हैं।
होली निकल गई और मुझे साबुन लगाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जब मुँह लाल, काले, नीले, पीले रंग से रंगा ही नहीं गया तो फिर उसकी सफाई करने की आवश्यकता ही क्या है ? ___इसीप्रकार 'तुषमासंघोषन्तो वाले मुनिराज ने अधिक गड़बड़ी नहीं की थी; इसलिए उन्हें देह से भिन्न भगवान आत्मा को जानते ही केवलज्ञान हो गया।
अत: प्रवचनसार में जो यह कहा गया है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त वस्तु है, गुण-पर्याय से युक्त वस्तु है; वह पूर्णतः सत्य है; परंतु यहाँ मुख्य शर्त अपने स्वरूप के अस्तित्व को छोड़े बिना की है। ___ स्वरूपास्तित्व की मर्यादा कायम रखकर, स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना ही भाई-भाई का सादृश्यास्तित्व रहता है। यह मेरी पत्नी है, यह मेरी बहन है, यह मेरी मामी है, यह मेरी भाभी है - ऐसा उन्हें छुए बिना ही जितने चाहे संबंध बना लो, पर उँगली लगाई तो यह अपराध माना जाएगा।
सादृश्यास्तित्व के आधार पर पर से एकता का कथन जितना भी है; वह सब इस महासत्ता के आधार पर किया गया कथन है। .
दसवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार पर चर्चा चल रही है। पूर्व प्रकरण में यह चर्चा हुई थी कि यह आत्मा मनुष्य, देव, नारकी आदि गतियों रूप असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि के कारण ही परसमय है। सम्पूर्ण पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक हैं अर्थात् द्रव्य गुणात्मक है और द्रव्य और गुणों की पर्यायें होती हैं।
पूर्व प्रकरण में यह चर्चा हो चुकी है कि एक द्रव्य की पर्याय का नाम द्रव्यपर्याय नहीं है; अपितु दो द्रव्यों की मिली हुई पर्याय का नाम द्रव्यपर्याय है।
कुछ लोगों को ऐसी आशंका हो सकती है कि प्रदेशत्वगुण के विकार को व्यंजनपर्याय कहते हैं और व्यंजनपर्याय ही द्रव्यपर्याय है; इसलिए यह कहना कैसे उचित हो सकता है कि यहाँ अनेक द्रव्यों का प्रकरण है।
दूसरी शंका यह हो सकती है कि जब किसी भी तरह की पर्याय में एकत्वबुद्धि करना मिथ्यात्व है; तब यहाँ मनुष्यादि पर्यायों पर वजन क्यों दिया जा रहा है?
प्रवचनसार की टीका में लिखा है कि अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्याय है।'
अनेक द्रव्यात्मक एकता अर्थात् अनेक द्रव्यों में जो एकता स्थापित करती है; ऐसी पर्याय का नाम द्रव्यपर्याय है।
गुणपर्याय को भी प्रवचनसार की टीका में निम्नप्रकार से परिभाषित किया है - 'गुण द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्याय है।'
यहाँ आयत की अनेकता को गुणपर्याय कहा गया है।
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