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प्रवचनसार का सार अवश्य दूंगा। वह यदि यह पूछे कि मैं अगले भव में क्या होऊँगा ? तो इस प्रश्न का भी उत्तर मेरे पास है और वह यह कि - 'मुझको पता नहीं है।' - यह भी तो एक उत्तर ही है।"
लोकसभा के प्रश्नोत्तरकाल में सेना के मामले में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न आया। तब नेहरुजी ने कहा था कि -
“देश की सुरक्षा की दृष्टि से इसका जवाब देना उचित नहीं है।" तब किसी ने कहा कि - "साहब आप टाल रहे हैं।" नेहरुजी ने कहा कि -
"कौन कहता है कि जवाब नहीं दिया । सुरक्षा के बिन्दुओं के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर देना ठीक नहीं है - यह एक जवाब ही तो है।" ___ "मुझे नहीं आता है" - यह भी तो जवाब ही है। इस सन्दर्भ में यह ४५वीं गाथा महत्त्वपूर्ण है -
पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा ।।४५।।
(हरिगीत ) पुण्यफल अरिहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही।
मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिकी मानी गई ।।४५।।
अरहन्त भगवान पुण्यफल युक्त हैं और वास्तव में उनकी औदयिकी क्रिया मोहादि से रहित है; इसलिए वह क्षायिकी है - ऐसा माना गया है।
प्रवचनसार के इस अधिकार की इस गाथा को लेकर बहुत विवाद उठाया जाता है।
कहा जाता है कि अरहंत भगवान पुण्य के फल हैं। सामान्य व्यक्ति को ऐसा लगता है कि इस अर्थ में कौन-सा पण्डित गड़बड़ कर सकता है; परन्तु भाईसाहब ! यहाँ ऐसा अर्थ है ही नहीं।
यहाँ आचार्यदेव यह कह रहे हैं कि १३वें गुणस्थानवर्ती अरहंत
चौथा प्रवचन भगवान ने जो पहले पुण्य बांधा था; उसके फल में समवशरण की रचना होती है, दिव्यध्वनि खिरती है। इसप्रकार पुण्य का उदय फला है। इसकारण उनकी क्रिया औदयिकी है अर्थात् कर्म के उदय से हुई है।
भाई ! पुण्य के उदय से संयोग मिलेंगे; परन्तु संयोगों को स्वीकार करना, स्वीकार नहीं करना - यह तो हमारे हाथ में है। वे संयोग जितने काल तक उदय होगा, उतने काल तक रहेंगे, फिर बिखर जाएँगे। समवशरण बनेगा, फिर बिखर जाएगा । जब बना था, तब भी उन्हें कोई लेना-देना नहीं था और जब बिखर गया तब भी उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। जितना भी पुण्यकर्म उदय में हो, वे उसके निमित्त भी नहीं हैं। उनकी वह औदयिकी क्रिया क्षायिकी जैसी है। टीका में स्पष्ट लिखा है
"जिनके पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भलीभांति पक गये हैं: उन अरिहंत भगवान की जो भी क्रिया है. वह सब पण्य के उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही है। महामोह राजा की समस्त सेना के क्षय से उत्पन्न होने से मोह-राग-द्वेषरूपी उपरंजकों के अभाव के कारण वह औदयिकी क्रिया भी चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती।
इसकारण उक्त औदयिकी क्रिया को कार्यभूत बंध की अकारणता और कार्यभूत मोक्ष की कारणता के कारण क्षायिकी ही क्यों न मानी जाय? अर्थात् उसे क्षायिकी ही मानना चाहिए।
यहाँ यह नहीं कहा कि पुण्य से अरहंत होते हैं; बल्कि यह कहा है कि अरहंतों के जो पुण्य होता है; वह उनके आगामी बंध का कारण नहीं बनता; इसलिए वह नहीं होने के समान ही है। यही कारण है कि उनकी वह क्रिया औदयिकी नहीं; क्षायिकी जैसी ही है।
गाथा तो हर एक पढ़ता है; लेकिन टीका में जो इसका मर्म प्रगट किया है, उसे कोई नहीं जानता।
पुण्य के फल में अरहंत होते हैं - ऐसा इसका अर्थ है ही नहीं।
ज्ञान का स्वरूप क्या है ? तीर्थंकर का स्वरूप क्या है ? दिव्यध्वनि क्या है ? यह हमारे ख्याल में आवे तो सच्चा जैनदर्शन हमारे ख्याल में आ जावे।