Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 63
________________ १२६ प्रवचनसार का सार ( हरिगीत ) जो जीव व्यपगत मोह हो उ प ल fa ध क निज आत्म I र छोड़ दें यदि राग रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें । । ८१ । । जिसने मोह को दूर किया है और आत्मा के सम्यक् तत्त्व को प्राप्त किया है - ऐसा जीव यदि राग-द्वेष को छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। जिस जीव ने आत्मा का अनुभव कर लिया है, दर्शनमोह का नाश कर दिया है - ऐसा जीव यदि राग-द्वेष को छोड़ देवें तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। यही विषय टीका में अत्यन्त सरलभाषा में स्पष्ट किया है - " इसप्रकार जिस उपाय का वर्णन किया है, उस उपाय के द्वारा मोह को दूर करके भी, सम्यक् आत्मतत्त्व को प्राप्त करके भी यदि जीव राग-द्वेष को निर्मूल करता है, तो शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है। (किन्तु ) यदि पुनः पुनः उसका अनुसरण करता है, राग-द्वेषरूप परिणमन करता है, तो प्रमाद के अधीन होने से अनुभवरूप चिंतामणिरत्न के चुराये जाने से अन्तरंग में खेद को प्राप्त होता है। इसलिए मुझे राग-द्वेष को दूर करने के लिए अत्यन्त जागृत रहना चाहिए।" आचार्यदेव यहाँ आत्मोपलब्धि के लिए एक महत्त्वपूर्ण संदेश देते हैं कि यदि इस जीव ने आत्मा में पुरुषार्थ कायम नहीं रखा तो यह औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एक सुनिश्चितकाल में छूट जाएगा। इसलिए इस सम्यग्दर्शन को कायम रखने के लिए भी जागना जरूरी है और आगे बढ़ने के लिए अर्थात् चारित्रमोह को नष्ट करने के लिए भी जागना जरूरी है, जागते रहना जरूरी है। पर-पदार्थों में उलझे रहना ही सोना है और अपने आत्मा में जमना - रमना, अपने आत्मा के ध्यान में ही मग्न रहना जागना है। • 60 आठवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के शुभपरिणाम अधिकार पर चर्चा चल रही है। इसमें ८०-८१वीं गाथा तक चर्चा हो चुकी है। अब आचार्य ८२वीं गाथा में घोषणा करते हैं कि - सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा । किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं ॥ ८२ ॥ ( हरिगीत ) सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी । सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ॥८२॥ सभी अरहन्त भगवान उसी विधि से कर्माशों का क्षय करके तथा उसी प्रकार से उपदेश करके मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, उन्हें नमस्कार हो । अचानक नमस्काररूप गाथा यहाँ कैसे आई ? इसका उत्तर आचार्यदेव ने इस गाथा की उत्थानिका में दिया है। 'अब, भगवन्तों के द्वारा स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ यही एक निःश्रेयस का पारमार्थिकपन्थ है - इसप्रकार मति को व्यवस्थित करते हैं।' अतः आचार्यदेव कहते हैं कि अब अधिक शोध-खोज के चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है। इतना बताने के बाद भी यह जीव ऐसा विचार करता है कि क्या यह सत्य है, क्या यह जरूरी है ? इसप्रकार भ्रमित होता है तो वह अभी समझा ही नहीं है। आजतक जिन्होंने कर्मों का नाश किया है, जो वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में भी जो कर्मों का नाश करेंगे; उनके लिए यही एक रास्ता है। तीनों काल यही एक उपाय है, था और रहेगा। इसलिए आचार्यदेव यहाँ मति को व्यवस्थित करते हैं अर्थात् इसके पश्चात् भी आगे और कोई रास्ता निकल आएगा इसप्रकार दिमाग को घुमाने की जरूरत नहीं है। इसे टीका में आचार्य ने उदाहरण देकर विशेष स्पष्ट किया है -

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