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प्रवचनसार का सार तो काम हो ही गया है। अब कुछ हो तो सकता नहीं; फिर व्यर्थ ही समय खराब क्यों करता है ? अब तेरे पास जो भी समय शेष है; वह इन व्यर्थ की बातों में नष्ट करोगे तो खाना छूट जाएगा, तुम्हारे सभी कार्यक्रम गड़बड़ा जाएँगे। अब तुम आगे की सोचो।।
इसप्रकार आचार्य समझाते हैं कि जिस बिन्दु पर पहुँचना चाहिए - ऐसे वास्तविक बिन्दु पर पहुँचने के बाद भी हमारी जो भटकने की वृत्ति चालू रहती है, वह बहुत खतरनाक है; क्योंकि वह हमें फिर उसी चक्कर में डाल सकती है, जिस चक्कर से हम बड़ी मुश्किल से सुलझ कर आए हैं।
किसी ने कपड़ा खरीद लिया और दर्जी के यहाँ भी डाल दिया। अब वह एक दुकानदार से कहता है कि आपके यहाँ कोई अच्छा-सा कपड़ा हो तो दिखाना । दुकानदार तो समझ जाता है कि इसे कपड़ा तो खरीदना नहीं है, यह मात्र भाव पूछ रहा है। तब वह दुकानदार उसे १० रु. मीटर कम बता देता है। ८० रु. मीटर खरीदा हो तो उसे ७० रु. मीटर बता देता है। वह व्यक्ति वहाँ से भाव सुनकर जहाँ से कपड़ा खरीद लिया था; उस व्यक्ति के पास जाता है और उससे झगड़ा करने लगता है। तू-तू, मैं-मैं प्रारम्भ हो जाती है। वह कहता है कि आज तो मैंने यहाँ से कपड़ा खरीदा; अब भविष्य में मैं कभी यहाँ से कपड़ा नहीं खरीदूंगा। वे दोनों शत्रु बन जाते हैं।
यदि इस जीव को सच्चा मार्ग मिल गया है और जिनवाणी माता पर पूर्ण विश्वास है, कुन्कुन्दाचार्य तथा अमृतचन्द्राचार्य ने जो लिपिबद्ध किया है; उस पर यदि पूर्ण विश्वास है तो फिर अब शोध व खोज की प्रक्रिया का कुछ महत्त्व ही नहीं रहता है। यदि यह सच्चा मार्ग मिलने के उपरांत भी शोध व खोज की प्रक्रिया प्रारम्भ रखता है तो ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ उपदेश नहीं है। उसके भाग्य में भटकना ही है।
पाँच वर्ष तक श्री टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय में
आठवाँ प्रवचन जैन तत्त्वज्ञान का गहराई से अध्ययन करें; फिर तत्त्व से विमुख हो जाय, ऐसे छात्र की शिकायत जब समाज करती है तो हम कहते हैं जिस छात्र को पाँच वर्ष तक समझाने से समझ में नहीं आया; वह अब पाँच मिनट के समझाने से कैसे समझेगा ?
उस शिष्य को 'अध्यापकों को नमस्कार करना चाहिए' - यह बात समझाकर अपने ही समय को व्यर्थ नष्ट करना है। विद्यार्थी को अध्यापकों को नमस्कार करना चाहिए - यह समझाने के लिए भी क्या महाविद्यालय खोला जाता है या प्रवचनसार जैसे शास्त्र की गाथाओं का अर्थ समझाने के लिए महाविद्यालय खोला जाता है। जिस महाविद्यालय में गुरुजनों को नमस्कार करना चाहिए - यह समझाना पड़े, यह उस महाविद्यालय का दुर्भाग्य ही है। यदि शिष्य गुरु के पास आता है तो गुरु ऐसा तत्त्व समझाए कि सहज ही शिष्य का विनम्र भाव से मस्तक झुक जाए।
आप हमें नमस्कार ही नहीं करते, आप मुनियों के विरोधी हो; प्रारम्भ से यहीं समझाने लगे। भाई ! यह समझाना कोई समझाना नहीं है। नमस्काररूप क्रिया तो अन्तर्निहित महिमा से ही प्रगट होती है। इसमें अधिक प्रलाप से क्या लाभ है ? आचार्य कहते हैं कि अब पूर्ण शक्ति से मोह के नाश करने का उद्यम करो।
अब शिष्य आचार्य से पूछता है कि - 'महाराज कोई दूसरा रास्ता है ?' तब आचार्य लिखते हैं कि - "अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति । - अब मोह के नाश के उपायान्तर की आलोचना करते हैं।"
आचार्य ने पूर्व में तो यह कहा था कि कोई दूसरा रास्ता नहीं है और यहाँ वे स्वयं ही दूसरा रास्ता बता रहे हैं। वस्तुत: यह दूसरा रास्ता नहीं है; उसी का सहयोगी रास्ता है।
आप किसी को यह बताते हैं कि भाईसाहब! यह विद्यालय बहुत अच्छा है; इसमें पाँच वर्षतक रहकर आप पढ़ेंगे तो इससे आपको बहुत
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