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प्रवचनसारका सार
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"अतीतकाल में क्रमश: हए समस्त तीर्थंकर भगवान प्रकारान्तर का असंभव होने से, जिसमें द्वैत संभव नहीं है; ऐसे इसी एकप्रकार से कर्मांशों का क्षय करके स्वयं अनुभव करके परमाप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस वर्तमान काल में अन्य मुमुक्षुओं को भी इसीप्रकार उपदेश देकर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं; इसलिए निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है - ऐसा निश्चित होता है अथवा अधिक प्रलाप से बस होओ ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है। भगवन्तों को नमस्कार हो।" ___ इसलिए आचार्य ऐसा उपदेश देते हैं कि अब मति को व्यवस्थित करो, अधिक प्रलाप से क्या लाभ है ? ।
आचार्यदेव कह रहे हैं कि अब ये जो खोज की चंचलवृत्ति है, उससे विराम लो।
जैसे - कोई लड़का शादी करना चाहता है। तब वह पच्चीसों जगह अपने योग्य लड़कियाँ देखता है। जब उसका दिमाग एक जगह स्थिर हो जाता है, उसकी सगाई हो जाती है; तब भी यदि कोई कहता है कि अभी और दो-चार जगह देख लो, तो उसका क्या आशय हो सकता है? यह बात समाज में भी बर्दाश्त के काबिल नहीं होती। लड़की के घरवालों को यह पता चल जाए कि अभी भी इसने लड़की देखना जारी रखा है तो वे भी इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। सगाई होने के पश्चात् लड़कियों को देखने में विराम लगना ही चाहिए।
यदि वह समाज में जाए और कहे कि मेरी सगाई हो गई है, फिर भी चार जगह लड़कियाँ देखने गए। सगाई हो गई फिर भी आपने ऐसा क्यों किया ? यदि उससे ऐसा पूछते हैं और वह कहता है कि लड़की तो
आपकी जैसी सुन्दर हिन्दुस्तान में कहीं नहीं है। इसलिए कहीं अन्यत्र रिश्ता होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इसलिए अन्यत्र देखने से आपको क्या फर्क पड़ता है?
भाईसाहब! यहाँ लड़की सुंदर है या नहीं है और दूसरी जगह उसका
आठवाँ प्रवचन रिश्ता होगा कि नहीं होगा? यह बात नहीं है। तुम्हारे मन में जो कचास है, बेईमानी है; वह यहाँ प्रगट हो गई है।
क्या लड़की के बाप को इतना धैर्य हो सकता है ? होना भी नहीं चाहिए।
ऐसे ही यद्यपि इस जीव को मुक्ति का मार्ग ख्याल में आया है; फिर भी भटकने की वृत्ति अभी है। इससे यही तात्पर्य है कि इसका मर्म इसे ख्याल में नहीं आया है। इसकी गहराई इस जीव को ख्याल में नहीं आई है।
ऐसे ही यदि तुम कहो कि तुम्हारा मोक्षमार्ग यदि सच्चा है तो और दस जगह देख लेने दो। इससे क्या फर्क पड़ता है; लौटकर तो यहाँ ही आना है। आचार्य कहते हैं कि हमें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर तेरी अनास्था तो प्रगट हो ही गई।
गुरुदेव ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसा फरमाते हैं कि - अभी भी यह मर रहा है। इसे आचार्य कुन्दकुन्ददेव का समयसार प्राप्त है एवं अमृतचन्द्र आचार्य की आत्मख्याति मिल गई है। इसे सब मर्म ख्याल में आ गया है। इसे पूरा पक्का-दृढ़ विश्वास है कि गुरुदेव जो कहते हैं, वह सच्ची बात है। फिर भी इसका यह विकल्प बना रहता है कि अन्यत्र भी कहीं देख लूँ, कहीं नई बात मिल जाएगी। भाई ! कहीं भी जाओगे इससे पृथक् कोई सत्य मिलेगा ही नहीं, अंत में यहीं आना पड़ेगा।
आचार्य यहाँ कह रहे हैं कि इसके भटकाव से यही स्पष्ट होता है कि इसके अंतर में अभी कचास है, विकल्प शेष हैं। इस जीव के जो भटकने की वृत्ति है, इसकी एकनिष्ठता में जो शंका उपस्थित हुई है, उससे आचार्यदेव परिचित हैं; इसलिए कहते हैं कि अधिक प्रलाप से क्या फायदा?
यह कहता है कि मजा नहीं आया, थोड़ा और समझाओ। इसे ही ध्यान में रखकर आचार्य कहते हैं कि अधिक प्रलाप से क्या फायदा?