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प्रवचनसार का सार
हो या अशुभोपयोग हो - दोनों के फल सच्चे सुखरूप तो हैं ही नहीं । आचार्य यहाँ स्पष्ट कर रहे हैं कि एक का नाम सुख है और एक का नाम दुःख है; पर हैं तो दोनों दुःख ही ऐसी स्थिति में शुभोपयोग और अशुभोपयोग - ऐसे भेद करने से क्या लाभ ?
पुण्य के उदय से अनुकूल भोगसामग्री प्राप्त होती है और पाप से उदय से प्रतिकूल भोगसामग्री प्राप्त होती है।
परन्तु हम कहते हैं कि पुण्य के उदय से शादी हुई और पाप के उदय से शादी नहीं हुई । अरे भाई ! ऐसा कहने पर तो सभी ब्रह्मचारी पापी हो जाएँगे । यहाँ ऐसा कहना चाहिए कि पुण्य के उदय से अनुकूल पत्नी का संयोग होता है और पाप के उदय से प्रतिकूल पत्नी का संयोग होता है।
इसीप्रकार यदि ऐसा कहेंगे कि पुण्य के उदय से रोटियाँ मिलीं और पाप के उदय से रोटियाँ नहीं मिली तो सभी उपवास वाले पापी हो जाएँगे । यहाँ ऐसा कहना चाहिए कि पुण्य के उदय से अनुकूल भोज्य सामग्री मिली और पाप के उदय से प्रतिकूल भोज्यसामग्री मिली, पेट में जाते ही दर्द शुरू हो गया, न खाने में मजा आया और न पीने में।
पुण्य-पाप दोनों ही संयोग है; लेकिन पाप के उदय को हमने वियोग में घटित किया । पुण्य एवं पाप का उदय न हो तो न अच्छा संयोग मिले न बुरा।
यदि दोनों का उदय न हो तो ज्ञानभानु का उदय होता है - 'पुण्य पाप सब नाश कर ज्ञान भान परकाश ।' पुण्य और पाप दोनों ही से भोग सामग्री मिल रही है, चाहे वह अच्छी मिले, चाहे बुरी; अनुकूल पत्नी मिले अथवा प्रतिकूल पत्नी मिले, आखिर तो सब भोगसामग्री ही है। उनसे यदि भोगसामग्री मिलती है तो उसमें शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद करने से क्या लाभ है ?
आगे आचार्य कहेंगे कि जिन्हें पुण्य व पाप में अंतर दिखाई देता है; दोनों एक हैं - ऐसा दिखाई नहीं देता; वे सभी अज्ञानी हैं और वे अपार
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छठवाँ प्रवचन
संसार में भ्रमण करेंगे।
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हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।।७७ । ( हरिगीत )
पुण्य पाप में अन्तर नहीं है जो न माने बात ये । संसारसागर में भ्रमे मदमोह से आच्छन्न वे ।। ७७ ।। ७२वीं गाथा के भावार्थ में और अधिक स्पष्ट किया है - 'शुभोपयोगजन्य पुण्य के फलरूप में देवादिक की सम्पदायें मिलती हैं और अशुभोपयोगजन्य पाप के फलरूप में नरकादिक की आपदायें मिलती हैं; किन्तु वे देवादिक तथा नारकादिक दोनों परमार्थ से दुःखी ही हैं।
इसप्रकार दोनों का फल समान होने से शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों परमार्थ से समान ही हैं अर्थात् उपयोग में अशुद्धोपयोग में - शुभ और अशुभ नामक भेद परमार्थ से घटित नहीं होते।'
एक ने डरा धमकाकर लूटा और एक ने चाय-पानी पिलाकर लूटा, प्रेम से लूटा । लुटेरों में ऐसे दो भेद करने से आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? जिसप्रकार लुटेरों में अच्छे-बुरे का भेद करने से कोई लाभ नहीं है; उसी प्रकार अशुद्धोपयोग में पाप व पुण्य ऐसे दो भेद करने से हमें क्या उपलब्ध होगा ?
शुभपरिणामाधिकार से कई व्यक्ति ऐसा ही समझते हैं कि इसमें आचार्यदेव ने 'देवपूजा करना चाहिए' - ऐसा लिखा होगा; पर आचार्यदेव ने तो 'शुभभाव भी करनेयोग्य नहीं अथवा शुभभाव को धर्म नहीं मानना' - यह समझाने के लिए शुभपरिणामाधिकार लिखा है। शुभभाव करने के लिए शुभपरिणामाधिकार नहीं लिखा है। इस गाथा के माध्यम से आचार्य इसे स्पष्ट करते हैं - कुलिसाउहचक्कधरा, सुहोव ओगप्पगेहिं भोगेहिं ।