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प्रवचनसार का सार
देहादीणं विद्धिं, करेंति सुहिदा इवामिरदा।।७३ ।।
(हरिगीत) वज्रधर अर चक्रधर सब पुण्यफल को भोगते ।
देहादि की वृद्धि करें पर सुखी हों ऐसे लगे ।।७३।। वज्रधर और चक्रधर शुभापयोगमूलक (पुण्यों के फलरूप) भोगों के द्वारा देहादिकी पुष्टि करते हैं और इसप्रकार भोगों में रत वर्तते हुए सुखी जैसे भासित होते हैं। (इसलिये पुण्य विद्यमान हैं)
इस ७३वीं गाथा की टीका बहुत मार्मिक है -
"शक्रेन्द्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए - जैसे गोंच (जोंक) दूषित रक्त में अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी जैसी भासित होती है; उसीप्रकार उन भोगों में अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए ये शकेन्द्र और चक्रवर्ती सुखी जैसे भासित होते हैं, इसलिये शुभोपयोगजन्य फलवाले पुण्य दिखाई देते हैं (अर्थात् शुभोपयोगजन्य फलवाले पुण्यों का अस्तित्व दिखाई देता है।)
मूल गाथा को पढ़ने से हमें ऐसा लगता है कि चक्रवर्ती तथा इन्द्रों को पुण्य के उदय से बहुत सुख प्राप्त होता है - ऐसा आचार्य कह रहे हैं।
परन्तु आचार्य तो यह कह रहे हैं कि जिसप्रकार जोंक गंदे खून को पीकर खुश होती है और सुख अनुभव करती है; उसीप्रकार ये इन्द्र और चक्रवर्ती पाँच इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हुए अपने को सुखी अनुभव करते हैं, सुखी मानते हैं एवं इसमें वे अनुकूलता का वेदन करते हैं। गोंच और गंदे खून का उदाहरण देकर अमृतचन्द्राचार्य ने लौकिक सुख-सुविधाओं का हेयत्व सिद्ध किया है।
अगली गाथा में भी इसे ही विस्तार दिया गया है तथा इसकी टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने फिर गोंच का उदाहरण देकर उस विषय को स्पष्ट किया है।
ते पुण उदिणतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि ।
छठवाँ प्रवचन इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ।।७५।।
(हरिगीत) अरे जिनकी उदित तृष्णा दुःख से संतप्त वे।
हैं दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते ।।७५।। जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरणपर्यंत विषयसुखों को चाहते हैं और दुःखों से संतप्त होते हुए उन्हें भोगते हैं।
इसे ही टीका में उदाहरण के माध्यम से विस्तार से स्पष्ट किया है -
“जिनके तृष्णा उदित है - ऐसे देवपर्यंत समस्त संसारी, तृष्णा दुःख का बीज होने से पुण्यजनित तृष्णाओं के द्वारा भी अत्यन्त दु:खी होते हुये मृगतृष्णा में से जल की भाँति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस दुःख संताप के वेग को सहन न कर सकने से विषयों को तबतक भोगते रहते हैं, जबतक कि विनाश को प्राप्त नहीं हो जाते।"
तात्पर्य यह है कि अंतिम समय तक उसको भोगने की कोशिश करते रहते हैं।
जिसप्रकार जोंक गंदे खून को पीने के लिए चिपट जाती है, यदि उसे छुड़ाने की कोशिश करो तो भी वह मरने तक छूटती नहीं है। संसी (संडासी) से पकड़कर उसे खींचना चाहो तो भी हम उसे जिन्दा नहीं निकाल सकते । जब वह पूरा खून पी लेगी और उसका पेट भर जाएगा; तभी वह उसे छोड़ेगी, हम उसे बीच में से नहीं हटा सकते । मरणपर्यन्त से आशय मरते दमतक नहीं है; अपितु मौत की कीमत पर - ऐसा है। स्वयं का मरण न भी हो तो भोग के भाव का तो मरण होता ही है।
जैसे खाना खा रहे हो और पेट भर जाये, फिर भी लड्डु खाना नहीं छोड़ते । मरणपर्यन्त से तात्पर्य यह है। जीवन के अंमित समय तक पंचेन्द्रिय के विषयों को भोगना चाहते हैं; लेकिन रोजाना मरणपर्यन्त अर्थात् जबतक वह भाव जीवित है, पेट नहीं भर गया है, अब और
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