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प्रवचनसार का सार (नायिका - संकेत के अनुसार अपने प्रेमी से मिलने जानेवाली स्त्री) की भाँति शुभोपयोगपरिणाति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त होता हुआ अर्थात् शुभोपयोग परिणति के प्रेम में फंसता हुआ मोह की सेना के वशवर्तनपने को दूर नहीं कर डालता, जिसके महादुख संकट निकट है - ऐसा वह शुद्ध आत्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है ? ।
इसलिए मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने के लिए कमर कसी
___ यह बहुत मार्मिक टीका है। जब कोई व्यक्ति मुनिदीक्षा लेता है तो उसके समस्त सावध का त्याग होता है। उस समय उसके परिणामों को देखें तो पायेंगे कि उसके परिणाम आत्मा के कल्याण करने के ही थे, समाज के उद्धार करने के नहीं, हर गाँव के मन्दिर की वेदी ठीक हो, वेदी का मुख वास्तुशास्त्र के अनुसार हो - ऐसे नहीं थे। हर गाँव के पास टेकड़ी (पहाड़ी) पर तीर्थ बना दूं। क्या मुनिव्रत लेते समय उनके मन में ऐसे संकल्प रहे होंगे? ___ कुन्दकुन्दाचार्य ने तो स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि 'जब तेरे परिणाम शिथिल होने लगे तो उस दिन का विचार करना कि जिस दिन तुमने दीक्षा ली थी। ___ आचार्यदेव ने महत्त्वपूर्ण बात यह कही कि तूने दीक्षा लेते समय यह प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं परमसामायिकरूप शुद्धोपयोग चारित्र को अंगीकार करता हूँ।'
यहाँ इस विषय को समझाने के लिए आचार्यदेव ने धूर्त अभिसारिका का उदाहरण दिया है।
अभिसारिका वह प्रेमिका है जो रात्रि में ऐसे वस्त्र पहनती है कि दूर से कुछ पता ही नहीं चले। यदि अमावस की रात्रि है तो वह काले कपड़े पहनकर आती है और पूर्णिमा की रात है तो वह सफेद साड़ी पहनकर आती है। पुराने जमाने में राजाओं के यहाँ बहुत पहरे लगे रहते थे। तब
सातवाँ प्रवचन जो प्रेमिका उन पहरेदारों को धोखा देकर, घूस देकर जैसे-तैसे प्रेमी के पास पहुँच जाये; वह धूर्त अभिसारिका है।
आचार्यदेव यहाँ अभिसारिका का उदाहरण देकर यह समझा रहे हैं कि शुद्धोपयोग की प्रतिज्ञा लेकर शुभोपयोग में लग जाए तो समझना कि वे शुद्धोपयोगरूप सर्वांग सुन्दर रानी को छोड़कर शुभभावरूपी धूर्त अभिसारिका के चक्कर में पड़ गए हैं। इतने कठोर शब्दों का प्रयोग किया है आचार्यदेव ने।
देखो, आचार्यदेव ने शुभभाव की क्रिया को धूर्त अभिसारिका बताया है। अभिसारिका शब्द स्वयं अपवित्र है, उसके साथ धूर्त शब्द
और लगा दिया है। यहाँ तो 'धतूरा और नीम चढ़ा' की कहावत चरितार्थ हो गई।
यहाँ कहा है कि जो शुभोपयोगरूप परिणति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त हुआ है, वह महासंकट में है। निगोद के अतिरिक्त और कोई महासंकट नहीं है। तात्पर्य यह है कि वह अल्पकाल में ही निगोद वापिस चला जायेगा। ____ जातिस्मरण के आधार से अभी जो यह बता रहा है कि वह पूर्व में मनुष्य था या देव था; उससे हम पूछते हैं कि भूतकाल में तो अनादिकाल से हम सभी निगोद में ही थे, वहाँ से निकलकर इस गति में आए हैं - यह तो महासत्य है न ! मध्य में कोई एक पर्याय श्रेष्ठ आ गई तो भूतकाल तो बहुत लंबा है। सबसे अधिक भूतकाल तो अंधकारमय ही रहा है। इसी भूतकाल में किसी एक पर्याय में चमत्कार हो गया था तो उसी पर्याय में एकत्वबुद्धि करके महिमावंत होकर भविष्य को बिगाड़ रहा है। __ आचार्यदेव तो यहाँ यह कह रहे हैं कि जो शुभोपयोग में लग रहे हैं - ऐसे मुनिराज भी महादुःखसंकट के निकट हैं। मान-प्रतिष्ठा का भाव न रखते हुए यदि गृहस्थ मन्दिर बनवा रहा है तो वह शुभभाव है। पर जिसने पाप का आरंभ त्याग दिया; उसके लिए तो यह पुण्य भी नहीं है;
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