________________
१०६
प्रवचनसार का सार
इस गाथा की टीका में इस संदर्भ में लिखते हैं कि 'वास्तव में इस आत्मा के लिए सशरीर अवस्था में भी शरीर सुख का साधन हो - ऐसा हमें दिखाई नहीं देता।'
सम्यग्दृष्टि के जो लौकिक सुख-दुःख हैं, वे भी शरीर के कारण नहीं हैं। यदि सम्यग्दृष्टि सुखी है तो वह शरीर के कारण नहीं है, वह आत्मा के अनुभव के कारण ही सुखी है।
एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। विसयवसेण दुसोक्खंदुक्खं वा हवदि सयमादा।।६६।।
(हरिगीत) स्वर्ग में भी नियम से यह देह देही जीव को।
सुख नहीं दे यह जीव ही बस स्वयं सुख-दुखरूप हो ।।६६।। एकांत से तो स्वर्ग में भी शरीर शरीरी (जीव) को सुख नहीं देता; परन्तु विषयों के वश से सुख अथवा दुःखरूप स्वयं आत्मा होता है।
पूर्व की गाथा में आचार्य ने अतीन्द्रियसुख के बारे में कहा था और इस गाथा में वे इन्द्रियसुख की चर्चा कर रहे हैं। कहने का आशय यह है कि जो भी हमारे आत्मा में विद्यमान हैं; चाहे वह अतीन्द्रिय आनन्द हो या लौकिक सुख-दुःख हों; उन सबका कारण आत्मा में ही विद्यमान है, देह में नहीं। ___अंत में आचार्य सुखाधिकार की इन दो गाथाओं के माध्यम से सोदाहरण समझाते हैं कि सुख और दुःख दोनों स्वाभाविक ही हैं।
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ।।६७।।
( हरिगीत ) तिमिरहर हो दृष्टि जिसकी उसे दीपक क्या करें।
जब जिय स्वयं सुखरूप हो इन्द्रिय विषय तब क्या करें ।।६७।। यदि प्राणी की दृष्टि तिमिरनाशक हो तो दीपक से कोई प्रयोजन नहीं
छठवाँ प्रवचन
१०७ है अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता; उसीप्रकार जहाँ आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमन करता है; वहाँ विषय क्या कर सकते हैं ?
चमगादड़, उल्लू और बिल्ली की आँखों में इतनी ताकत होती है कि अँधेरे में भी सब दिखाई देता है; क्योंकि उनकी दृष्टि तिमिरहरा होती है। हमें देखने के लिए उजाले की जरूरत है; परन्तु उन्हें उजाले की जरूरत नहीं पड़ती है। ___ ऐसे ही जिनके स्वाभाविक सुख है; उनको सुख के लिए पाँचइन्द्रियों के विषयों की जरूरत नहीं है। कहने का आशय यही है कि इस जीव के सुख-दुःख का जिम्मेदार वही है और कोई दूसरा नहीं। इस संदर्भ में ६८वीं गाथा में दिया गया दूसरा उदाहरण इसप्रकार है
सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । सिद्धों वि तहा णाणं सुहं च लोके तहा देवो ।।६८।।
(हरिगीत) जिसतरह आकाश में रवि उष्ण तेजरु देव है।
बस उसतरह ही सिद्धगण सब ज्ञान सुखरु देव हैं ।।६८।। आकाश में सूर्य अपने आप ही तेज, उष्ण और देव हैं; उसीप्रकार लोक में सिद्ध भगवान भी (स्वयमेव) ज्ञान, सुख और देव हैं।
सूर्य में तेज, गर्मी व प्रकाश - ये तीन गुण स्वभाव से ही हैं। सूर्य को देवता कहा जाता है; इस विवक्षा से उसमें देवत्व, उष्णत्व व तेजत्व ये स्वभाव से ही है, किसी दूसरे की वजह से नहीं है। वह अपने आप ही गर्म है, प्रकाशमय है; किसी दूसरे के कारण वह गर्म व प्रकाशमय नहीं है।
ऐसे ही सिद्ध भगवान अपने ज्ञान, सुख व देवत्व में स्वयं ही कारण हैं, उन्हें किसी दूसरे की जरूरत नहीं है।
इसप्रकार आचार्य यहाँ सुखाधिकार समाप्त करते हैं। अब आचार्य शुभपरिणामाधिकार प्रारम्भ करते हैं।
50