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प्रवचनसार का सार
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यह जो पाँच इन्द्रियों के विषयों की तरफ दौड़ते हुए देखे जाते हैं; उन्हें किसी ने दौड़ाया नहीं है, किसी ने प्रशिक्षित नहीं किया है; वे स्वयं ही विषयों की ओर दौड़ते हैं; अत: स्वाभाविकरूप से दुखी हैं।
अब आचार्य, चक्रवर्तियों की और इन्द्रों की बात करते हैं। देखो, इन्द्रों की कैसी दुर्दशा है ? विषय क्षणिक हैं; उनका अंत, नाश अतिनिकट है; पाँच इन्द्रियों के जो विषय हैं, वे अनंतकाल तक रहनेवाले नहीं हैं; तथापि वे इन्द्रादि विषयों की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं।
इससे यह तो सिद्ध ही है कि वे दुखी हैं। यदि वे दुखी नहीं होते तो इन्द्रियविषयों के प्रति दौड़ते दिखाई नहीं देते; क्योंकि जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिए उपचार क्यों करेगा?
पहले किसी को सर्दी लगकर बुखार आता था, कँपकँपी छूटती थी तो उसे शीतज्वर कहा जाता था और पसीना आ जाए तो वह बुखार उतर जाता था। बचपन में जब हमें बुखार आता था तो तब खूब कपड़े उड़ाकर सुलाया जाता था। पसीना आ जाएगा तो बुखार उतर जाएगा - यही माना जाता था। आचार्य यहाँ कह रहे हैं कि जिसका शीतज्वर शांत हो गया है; वह पसीना लाने के लिए उपाय क्यों करेगा? ।
एक बुखार ऐसा है कि जिससे सारे शरीर में जलन होती है। आचार्य कहते हैं कि जिसका दाहज्वर दूर हो गया है, वह काँजी से शरीर के ताप को उतारता हुआ क्यों दिखाई देगा ? जिसके आँखों का दुःख दूर हो गया है, वह बटाचूर्ण आँजता क्यों दिखाई देगा ? जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया है, वह कान में बकरी की पेशाब क्यों डलवायेगा?
कान में डालों तो नाक और गले में भी पहुँच जाती है। यह शुद्ध और सात्त्विक भी नहीं है। रोग नहीं हो तो कोई ऐसा क्यों करेगा ? किन्तु ताप उतारने के लिए ही वे पसीना लेते देखे जाते हैं, शीतज्वर को दूर करने के लिए ही कांजी की मालिश करते देखे जाते हैं, आँख में बटाचूर्ण
छठवाँ प्रवचन
आँजते देखे जाते हैं और कान में बकरे की पेशाब डलवाते देखे जाते हैं; इससे यह सिद्ध होता है कि वे दु:खी हैं।
पाँचवाँ उदाहरण यह है कि जिसका घाव भर जाता है, वह लेप करता हुआ दिखाई नहीं देता है। जब घाव हो जाता है, तभी लेप लगाया जाता है।
इसप्रकार आचार्य ने पाँच उदाहरण देकर यह सिद्ध किया कि विषयों में प्रवृत्त जीव दुखी ही हैं।
जो सुखी हैं; उनके विषयों में व्यापार नहीं दिखना चाहिए; परन्तु चक्रवर्ती और इन्द्रों के विषयों में व्यापार देखने में आता है; इससे यह सिद्ध होता है कि वे स्वभाव से ही दुःखी हैं।
चक्रवर्ती की पट्टरानी रजस्वला नहीं होती, उसे मासिकधर्म नहीं होता, उसके कोई संतान भी नहीं होती।
यद्यपि संतान नहीं होना तो लोक में अच्छा नहीं माना जाता; तथापि शास्त्रों में यह लिखा है कि मासिकधर्म होना और सन्तान की उत्पत्ति - इन दो कारणों से विषयभोग में बाधा पड़ती है; चक्रवर्ती को निरन्तर निर्बाध भोग उपलब्ध रहें, इसके लिए प्रकृति ने यह व्यवस्था की है। ___चक्रवर्ती के ऐसे पुण्य का उदय है कि जिसके कारण उसके भोगों में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। कहने का आशय यह है कि उन्हें भोग की ऐसी निर्विघ्न व्यवस्था चाहिए। इसके आधार पर हम चक्रवर्ती व इन्द्र कितने दु:खी हैं; इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
प्रश्न - यह तो अतीन्द्रियसुखाधिकार का प्रकरण है। इसमें दुःख की चर्चा क्यों कर रहे हैं ?
उत्तर - सम्पूर्ण जगत ने इस दुःख को ही सुख मान रखा है। वह सुख वास्तविक सुख नहीं है और यह अतीन्द्रियसुख ही वास्तविक सुख है - यह बात बताने के लिए यह चर्चा की जा रही है।
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