Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ प्रवचनसार का सार बारह भावना : एक अनुशीलन का मुखपृष्ठ इसी घटना से प्रेरित है। इसमें मानवदेह की विविध अवस्थाओं को दर्शाया गया है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक की सभी अवस्थाएँ इसमें हैं। जो जिस अवस्था का है, वह उस अवस्था के भूत तथा भविष्यकाल की अवस्था को इसमें देख सकता है। तात्पर्य यह है कि आप इसे देखकर अपनी भूत-भावी पर्यायों की कल्पना कर सकते हैं। यह तो मतिज्ञान की बात है। केवलज्ञान में ऐसा नहीं है कि वर्तमान की पर्याय साफ दिखाई दे रही हो और भविष्यकाल की तथा भूतकाल की पर्यायों की हमने कल्पना की हो । यह कल्पनालोक की उड़ान नहीं है, अनुमान नहीं है, अंदाज नहीं है। केवलज्ञान में तो जैसी वह वस्तु है, वैसी ही प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है। केवलज्ञान में सब जाति के सभी द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय वर्तमान के समान दिखाई देती है। दर्पण में बहुत स्थूलता है, अपने चेहरे की बहुत-सी बारीकियाँ उसमें दिखाई नहीं देती; परन्तु केवलज्ञान में तो सब पदार्थों की अनादिअनंत पर्यायें अपनी पूरी बारीकियों के साथ एक साथ झलकती हैं। ____ अतीन्द्रियज्ञान का स्वरूप स्पष्ट करनेवाली प्रवचनसार की ये गाथाएँ णमोकार महामंत्र जैसी गाथाएँ हैं; क्योंकि इनमें अरहंत भगवान के जो ज्ञानपर्याय प्रगट हुई है; उसका बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है। यहाँ आचार्य कह रहे हैं कि एक-एक समय की एक-एक पर्याय - इसप्रकार अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक की सभी पर्यायें उस द्रव्य की स्वरूपसम्पदा है। ___ यदि कोई कहे कि एक-एक क्षण में बदलना पड़ता है - यह तो बहुत परेशानी का काम है। हम दौड़ते ही रहें, दौड़ते ही रहें। उससे ही आचार्य कह रहे हैं कि अरे भाई ! यह विपत्ति नहीं है, सम्पत्ति है। यह अपने स्वरूप की सम्पदा है। चौथा प्रवचन हम दाल बनाते हैं तो उसमें मिर्ची, नमक, जीरा सब मिला हुआ लगता है; लेकिन उसमें एक-एक चीज अलग-अलग है। यद्यपि वे हमें मिश्रित दिखाई देती हैं; तथापि वे अलग-अलग ही हैं। क्या केवलज्ञान में भी वे ऐसी ही मिश्रित दिखाई देती होंगी ? अरे भाई! वे मिश्रित होने पर भी केवलज्ञान में अमिश्रित ही दिखाई देती हैं। मिली हुई होने पर भी सब द्रव्यों की सब पर्यायें एकदम स्पष्ट दिखाई देती हैं; उसमें किसी भी प्रकार की अस्पष्टता नहीं होती। जब हम जयपुर का नक्शा बनाते हैं तो उसमें पण्डित टोडरमल स्मारक भवन की स्थिति एक बिन्दु जैसी होती है। एक पेन्सिल के नोक पर जितना स्थान होता है, उतना ही स्थान टोडरमल स्मारक भवन का होता है। परन्तु हम इसी भवन को जयपुर के नक्शे में एन्लार्ज (बड़ा) करके दिखाते हैं; क्योंकि इससे रेलवे स्टेशन से टोडरमल स्मारक भवन कैसे पहुँचा जाय - यह बताना अभीष्ट है। हमने उस स्थान को प्रयोजनवश बड़ा बताया है; परन्तु वस्तुस्थिति में वह बड़ा नहीं है। यदि कोई व्यक्ति उस स्थान को पूरे जयपुर के अनुपात से जितना हमने बताया है, उतना ही मानने लग जाय तो गलती ही करेगा। ऐसे ही जो व्यवहार हमारे श्रुतज्ञान में प्रवर्तित हुआ है; वह केवलज्ञान में नहीं है। केवलज्ञान में व्यवहार की जरूरत नहीं होती; क्योंकि नय श्रुतज्ञान में ही होते हैं। हम हमारे श्रुतज्ञान की तरफ से कहते हैं कि केवल -ज्ञान पर को व्यवहार से जानता है और स्व को निश्चय से जानता है। ये विवक्षा श्रृतज्ञान की तरफ से है। उस केवलज्ञान में तो स्व व पर दोनों एकसाथ जैसे हैं, वैसे झलकते हैं। महासत्ता की अपेक्षा एकता और अवान्तर सत्ता की अपेक्षा जो पृथकता दिखती है; यह सब हमारे ज्ञान में प्रवर्तित नयप्रयोग है। ___जब अनुभव के काल में भी नय नहीं रहते हैं; तब केवलज्ञान होने पर नय कैसे रहेंगे? ध्यान के काल में भी नय नहीं है। मैं यहाँ बैठकर प्रवचन कर रहा हूँ और यह सामनेवाला व्यक्ति 29

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