Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ ७२ ७३ प्रवचनसार का सार लेकिन वह पुरुष नहीं माना और उसने ऑर्डर दे दिया कि इसमें वह रसायन नहीं डाला जाय; जिससे सेक्स की भावना पैदा होती है। ऑर्डर के अनुसार प्राप्त बच्चा २५-३० वर्ष का जवान हो गया; परन्तु उसके अन्दर सेक्स भावना तो बिल्कुल थी ही नहीं। अत: वह निरन्तर अपने वैज्ञानिक प्रयोगों में लगा रहता था। वह खूबसूरत, सुंदर और शक्तिसम्पन्न था; पर उसमें विषय-वासना का लेश न था। एक बार एक सुंदर लड़की उस पर मोहित हो गई। वह लड़की अपने हाव-भावों से अपना अभिप्राय व प्रेम प्रगट करती; परन्तु उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता। वह आँख का बहुत बड़ा डॉक्टर बन गया था। उससे प्रेम करनेवाली लड़की ने उससे प्रेम प्रगट करने के लिए एक बार कहा कि - "तुम मेरी आँखों में आँखे डालकर तो देखो।" उसने अच्छीतरह से उसकी आँखें देखी। आँखे देखने के बाद उसने बड़े ही वीतरागभाव से कहा कि - 'तुम्हारी आँखें ठीक वैसी ही हैं; जैसी की स्तनधारी प्राणियों की होती हैं।' ___जब उस लड़के ने ऐसा कहा तो उसकी माँ रोने लगी। वह अपने पति से कहने लगी - "मैंने कहा था कि ऐसा मत करो। देखो क्या हालत हो गई है।" इस कथन का आशय मात्र इतना ही है कि वीतरागता का वास्तविक स्वरूप क्या है, सर्वज्ञता क्या है - हम एकबार इसकी कल्पना तो करें। यदि अंदर राग का तत्त्व विद्यमान है तो प्रतिक्रिया रागवाली होगी। इस बात पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए; मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा। सर्वज्ञता और वीतरागता पर मैंने महिनों सोचा है। जो कुछ जिनवाणी में पढ़ा है, वह तो बहुत सीमित है। मैंने एक-एक गुणस्थान पर सोचा है। ६३-७वें गुणस्थानवाले साधुओं के अंदर जो तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप स्थिति है, उसका स्वरूप कैसा होना चाहिए? किन-किन चौथा प्रवचन परिस्थितियों में उनकी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए? अप्रत्याख्यानावरण कषाय का कार्य क्या है ? अनंतानुबंधी कषाय का कार्य क्या है ? ये कषायें साधुओं के नहीं हैं तो उनसे कौन-से कार्य नहीं होंगे? इन सब बातों पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। ___ मैं कहता हूँ कि भगवान वीतरागी हैं, सर्वज्ञ हैं और संपूर्ण लोकालोक को जानते हैं; ऐसी स्थिति में उनका ज्ञान कैसा होता होगा - इसकी कल्पना करें। अरे, कम से कम एक बार कल्पना में तो मुनि बनिए। ६वें, ७वें गुणस्थान की कल्पना तो कीजिए । मेरा कहने का आशय यह है कि ज्ञान को दौड़ाओ, अकेले शास्त्रों से ही नहीं, शास्त्रज्ञान के साथसाथ चिन्तन भी होना चाहिए। अतीन्द्रियज्ञान (सर्वज्ञता) के संदर्भ में आचार्यदेव कहते हैं - अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ।।४०।। (हरिगीत) जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते । वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें ।।४।। जो इन्द्रियज्ञानगोचर पदार्थों को ईहादिपूर्वक जानते हैं, उन्हें परोक्षभूत पदार्थों का जानना अशक्य है - ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। हमारा मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणापूर्वक प्रवृत्ति करता है; किन्तु केवलज्ञान में ऐसा नहीं होता। हम इसी मतिज्ञान के रूप में उनके ज्ञान को देखने की कोशिश करते हैं। हम ऐसा सोचने लगते हैं कि उन्हें भी समयसार की सब गाथाएँ याद होंगी। अरे भाई ! उन्हें मतिज्ञान नहीं है। उन्हें स्मृति की कुछ आवश्यकता ही नहीं है; क्योंकि उन्हें तो वर्तमान में ही सब प्रत्यक्ष है। हम हमारे मतिज्ञान से उनके ज्ञान की तुलना करते हैं; इसलिए केवलज्ञान का स्वरूप हमारे ख्याल में नहीं आता। 33

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