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प्रवचनसार का सार
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होंगे, वैसे बना दूँगा।"
फिर यह कहता है - "पहले दो रुपए के बाल बना दो, बाद में यदि नहीं जचेंगे तो २० रु. के बनवा लूँगा।"
वह नाई उस्तरा से सारे बाल साफ कर देता है।
यह व्यक्ति कहता है कि "यह क्या ? यह तो अच्छा नहीं लगता । गड़बड़ हो गई। अब तो तुम २० रु. के बना दो।”
फिर नाई कहता है - "अब जब बाल ही नहीं रहें तो २० रुपए के बाल कैसे बनाऊँगा ।"
ऐसे ही यह यदि बिना समझें सर्वज्ञता ले ले और फिर यह कहे कि इसमें तो सारी दुनियाँ दिखाई दे रही है। मुझे तो पर को देखना ही नहीं था; क्योंकि मेरी दृष्टि में तो पर को देखना- जानना पाप है। अब तो अनन्तकाल तक सम्पूर्ण लोकालोक ज्ञान में झलकेगा। अब क्या करूँ ? ऐसी स्थिति में सर्वज्ञता नष्ट नहीं होगी अर्थात् वह ऐसा उत्पाद है कि जिसका विनाश ही नहीं होगा ।
अरे भाई ! सर्वज्ञता पहले समझ में आती है और बाद में जीवन में आती है।
ताजमहल जमीन पर बना, इसके पहले कागज पर बना होगा। कागज पर बनने के पहले किसी के ज्ञान में बना होगा। ऐसे ही सर्वज्ञता जब पर्याय में प्रगट होगी, तब पहले जब वह तेरी समझ में आवेगी, तेरे मतिज्ञान में सर्वज्ञता का स्वरूप ख्याल में आएगा और जब यह सर्वज्ञता का स्वरूप सम्यक् रीति से ख्याल में आएगा, तब सर्वज्ञता प्रगट होने का कार्य प्रारम्भ होगा।
यदि आप यह सोचते हैं कि जब सर्वज्ञता हो जाएगी, तब देख लेंगे। जब आत्मा का अनुभव हो जाएगा तो मैं अन्दर में देख लूँगा कि आत्मा कैसा है ? तब आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं चलेगा।
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तीसरा प्रवचन
प्रथम इस जीव को आत्मा को अच्छी तरह से समझना होगा। गुरु मुख से, शास्त्र से आत्मा को अच्छी तरह से समझने के बाद सर्वज्ञता का मार्ग प्रशस्त होगा। इसलिए आचार्य यहाँ सर्वज्ञता का स्वरूप बता रहे हैं।
जैसे इन्द्रनीलमणि को दूध में डाल दिया तो दूध खराब हो जाएगा या इन्द्रनीलमणि खराब हो जाएगा - यह चिंता दिमाग से पूर्णत: निकाल दो। कितनी ही बार इन्द्रनीलमणि को दूध में डालो तो भी न दूध खराब होनेवाला है और न ही इन्द्रनीलमणि । इन्द्रनीलमणि दूध में जाए अथवा
न जाए तो भी दूध में कोई फर्क आनेवाला नहीं है। ऐसे ही ज्ञान ज्ञेयों को जाने तो ज्ञेयों में कुछ ही गड़बड़ी होनेवाली नहीं है और ज्ञेय ज्ञान जानने में आवें तो ज्ञान में कुछ गड़बड़ी होनेवाली नहीं है । इसे ही आचार्य ने मूलतः इसप्रकार स्पष्ट किया है -
संति अट्ठा गाणे णाणं ण होदि सव्वगयं । सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्टिया अट्ठा ।। ३१ ।। ( हरिगीत )
वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत | ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ।। ३१ ।। यदि वे पदार्थ ज्ञान में न हों तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता और यदि ज्ञान सर्वगत है तो पदार्थ ज्ञान में स्थित कैसे नहीं होंगे ?
इसे हम इसप्रकार भी कह सकते हैं कि चाहे ज्ञानगत सारा लोक है - ऐसा कहो अथवा ज्ञान सर्वगत है - ऐसा कहो - दोनों का एक ही अर्थ है; लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दोनों के मध्य वज्र की दीवार कायम है। यह दीवार पारदर्शी है। यह स्थूल काँच जैसी पारदर्शी नहीं; मणियों जैसी पारदर्शी है। यद्यपि इसे कोई तोड़ नहीं सकता; तथापि सामने के पदार्थ बिल्कुल साफ दिखाई देते हैं।
ज्ञेयों का स्वभाव ज्ञान में प्रवेश करने का नहीं है और ज्ञान का