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प्रवचन-सारोद्धार
१५
पूर्वोक्त चारों सामायिकों के एक भवाश्रयी व अनेक भवाश्रयी दो प्रकार के आकर्ष हैं।
१. एक भवाश्रयी—प्रथम तीन सामायिकों के आकर्ष उत्कृष्टत: सहस्र पृथक्त्व (२००० से ९००० बार तक प्राप्त होती है) हैं व अंतिम सामायिक के आकर्ष शतपृथक्त्व (२०० से ९०० बार) है।
आवश्यकचूर्णि के अनुसार देशविरति सामायिक के भी उत्कृष्ट आकर्ष शतपृथक्त्व है। कहा है— “देसविरईए य...पुण जहन्नेण एकम्मि, उक्कोसेण सयपुहुत्तंवारा” इति ।
अर्थ-देशविरति सामायिक का जघन्य से एक आकर्ष व उत्कृष्ट से शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं।
जघन्यत:- चारों ही सामायिक के आकर्ष एक-एक हैं। इसके बाद या तो आत्मा भाव-भ्रष्ट हो जाता है या इनका लाभ ही नहीं होता ॥८३६-८३७ ॥
२. अनेकभवाश्रयी-प्रथम तीन सामायिक के आकर्ष उत्कृष्टत: असंख्य सहस्र हैं। अंतिम सामायिक के उत्कृष्टत: आकर्ष सहस्र पृथक्त्व है ।
प्रथम तीन सामायिकवालों के भव क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने हैं और एक भवाश्रयी सहस्र-पृथक्त्व हैं। अत: प्रथम तीन सामायिक के उत्कृष्ट आकर्ष असंख्य सहस्र होते हैं।
सर्वविरति सामायिक वाले आत्मा के उत्कृष्ट आठ भव हैं और उसके एक भव-सम्बन्धी आकर्ष शतपृथक्त्व होते हैं अत: उसके उत्कृष्ट आकर्ष सहस्र पृथक्त्व हुए।
अन्य आचार्यों के मतानुसार सम्यक्त्व सामायिक व उसके अविनाभावी श्रुत सामायिक के एकभवाश्रयी असंख्य सहस्र आकर्ष है। कहा है-'दोण्ह सहस्समसंखा।'
अक्षरात्मक सामान्य श्रुत की प्राप्ति अनेक भवों में अनेक बार होती है। अत: उसके आकर्ष भी अनंत गुण होते हैं ।।८३८ ॥
१२३ द्वार :
शीलांग
सीलंगाण सहस्सा अट्ठारस एत्थ हुंति नियमेणं । भावेणं समणाणं अक्खंडचरित्तजुत्ताणं ॥८३९ ॥ जोए करणे सन्ना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारगस्स निप्फत्ती ॥८४० ॥ करणाइं तिन्नि जोगा मणमाईणि हवंति करणाइं। आहाराई सन्ना चउ सोयाइंदिया पंच ॥८४१ ॥ भोमाई नव जीवा अजीवकाओ य समणधम्मो य।
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