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शास्त्रं करोमि वरमल्पतरावबोधो, माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्प्रसादात् । अर्थं न किं स्फुटयति प्रकृतं लघीयाँल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्गवाक्षः ॥ 2॥ ये नूनं प्रथयन्ति नोऽसमगुणा मोहादवज्ञां जनाः, ते तिष्ठन्तु न तान्प्रति प्रयतितः प्रारभ्यते प्रक्रमः। सन्तः सन्ति गुणानुरागमनसो ये धीधनास्तान्प्रति, प्रायः शास्त्रकृतो यदत्र हृदये वृत्तं तदाख्यायते ॥3॥ त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान्, खलजनपरिवृत्तेः स्पर्धते किन्तु तेन। किमु न वितनुतेऽर्कः पद्मबोधं प्रबुद्धस्तदपहृतिविधायी शीतरश्मिर्यदीह ॥4॥
अर्थ-मैं अल्पज्ञानवाला (प्रभाचन्द्राचार्य) श्री माणिक्यनन्दि गुरु के चरणकमल के प्रसाद से श्रेष्ठ इस प्रमेय अर्थात् विश्व के पदार्थ रूपी कमल को विकसित करने में सूर्य (मार्तण्ड) स्वरूप ऐसे इस शास्त्र की रचना करता हूँ, यह उचित ही है, क्या दुनियां में एक छोटा सा झरोखा सूर्यकिरणों से दिखायी देने वाले पदार्थों को स्पष्ट नहीं करवाता है? अर्थात् करवाता ही है, उसी प्रकार मैं कम ज्ञान होकर भी गुरु प्रसाद से शास्त्र की रचना करने का प्रयास कर रहा हूँ॥2॥
अर्थ-यद्यपि इस जगत में बहुत से लोग मोहबहुलता के कारण ईर्ष्यालु (गुणों को सहन नहीं करने वाले) हैं अथवा वक्र बुद्धि वाले हैं। वे इस ग्रन्थ की अवज्ञा करेंगे। ऐसे लोग हैं तो रहें, हमने यह रचना उनके लिए प्रारम्भ नहीं की है। माणिक्यन्दि के परीक्षामुख ग्रन्थ की टीका उनके लिए प्रवृत्त हुयी है जो बुद्धिमान और गुणानुरागी हैं॥3॥
___ अर्थ-जो लोग बुद्धिमान होते हैं वे आरम्भ किये हुए कार्य को दुष्ट पुरुषों की दुष्टता से घबड़ाकर नहीं छोड़ते हैं, किन्तु और भी अच्छी तरह से कार्य करने की स्पर्धा करते हैं, जैसे चन्द्र कमलों को मुरझा देता है तो भी क्या सूर्य पुनः कमलों को विकसित नहीं करता 2:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः