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प्रकारं व्याख्यातुकामोऽविरुद्धत्याद्याह
अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भभेदादिति ॥78॥
प्रतिषेध्येनाविरुद्धस्यानुपलब्धिः प्रतिषेधे साध्ये सप्तधा भवति। स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलब्धिः भेदात्।
तत्र स्वभावानुपलब्धिर्यथानास्त्यत्र भूतले घट उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः ॥79॥
123. पिशाचादिभिर्व्यभिचारो मा भूदित्युपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति विशेषणम्। कथं पुनर्यो नास्ति स उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्तत्प्राप्तत्वे वा कथमसत्त्वमिति चेदुच्यते-आरोप्यैतद्रूपं निषिध्यते सर्वत्रारोपितरूपविषयत्वान्निषेधस्य। यथा 'नायं गौरः' इति। न ह्यत्रैतच्छक्यं वक्तुम्-सति गौरत्वे
अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भभेदात् ॥78॥
सूत्रार्थ- प्रतिषेधरूप साध्य में अविरुद्ध अनुपलब्धि हेतु के सात भेद होते हैं- स्वभाव-अविरुद्धानुपलब्धि, व्यापक अविरुद्धानुपलब्धि, कार्य-अविरुद्धानुपलब्धि, कारण अविरुद्धानुपलब्धि, पूर्वचर अविरुद्धानुपलब्धि, उत्तरचर अविरुद्धानुपलब्धि और सहचर अविरुद्धानुपलब्धि। प्रतिषेध्य के अविरुद्ध की अनुपलब्धि होना रूप हेतु प्रतिषेधरूप साध्य के होने पर सात प्रकार का होता है।
उनमें क्रम प्राप्त स्वभावानुपलब्धि को कहते हैंनास्त्यत्र भूतले घटो उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः ॥79॥
सूत्रार्थ- इस भूतल पर घट नहीं है क्योंकि उपलब्धि लक्षण प्राप्त होकर भी अनुपलब्धि है।
___123. पिशाच परमाणु आदि के साथ व्यभिचार न हो इसलिये "उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य" ऐसा हेतु में विशेषण प्रयुक्त हुआ है।
162:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: