Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 314
________________ 278 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/58 62. मा भूत्प्रत्यक्षस्य तद्विषयत्वमनुमानादेस्तु भविष्यतीत्याहअनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥58॥ चार्वाक प्रति। सौगतादीन्प्रति यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे बौद्ध आदि के इष्ट प्रमाण संख्या द्वारा व्याप्तिरूप विषय ग्रहण नहीं होता अतः उनकी संख्या सिद्ध नहीं होती वैसे ही चार्वाक के एक प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा परलोक निषेधादि नहीं होने से वह एक संख्या बाधित होती है। अनुमान सिद्ध बात है कि- जो जिसका अविषय है वह उसके द्वारा सिद्ध नहीं होता, जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि का व्याप्ति अविषय होने से उनके द्वारा सिद्धि रूपी प्रसाद शिखर का आरोहण नहीं कर सकती अर्थात् प्रत्यक्ष अनुमानादि से व्याप्ति की सिद्धि नहीं होती, परलोक निषेध आदि प्रत्यक्ष प्रमाण का अविषय है ही अतः वह प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चार्वाक, बौद्ध आदि सभी परवादियों के यहाँ जो-जो प्रमाण संख्या मानी है वह सब ही संख्याभास है, वास्तविक प्रमाण संख्या नहीं है- ऐसा निश्चय हुआ है। 62. अब यहाँ कोई शंका करे कि परलोक निषेधादिक प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय भले ही मत हो किन्तु अनुमान प्रमाण का विषय तो वह होगा ही? इस शंका का समाधान करते हए अगला सूत्र कहते हैं अनुमानादेस्तद् विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥58॥ सूत्रार्थ- चार्वाक यदि अनुमानादि द्वारा परलोक निषेध आदि कार्य होना स्वीकार करे, अर्थात् परलोक निषेध इत्यादि अनुमान का विषय है ऐसा माने तो उस अनुमान को प्रमाणभूत स्वीकार करना होगा, और इस तरह प्रत्यक्ष से अन्य भी प्रमाण है। ऐसा स्वीकार करने से उस मत की प्रमाण संख्या खण्डित होती ही है। जैसे बौद्ध मत की संख्या खण्डित होती है

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