Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 319
________________ 6/63-65 प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार: 283 स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् 1631 एतश्च सर्व विषयपरिच्छेदे विस्तारतोभिहितमिति नेहाभिधीयते। नापि द्वितीयः पक्षः; समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥64॥ परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावादिति ॥165|| अथेदानीं फलाभासं प्ररूपयन्नाह पहले नहीं करता था, अर्थात् पदार्थ जो भी कार्य करते हैं उसमें वे किसी अन्य की अपेक्षा रखते हैं या नहीं? याद रखते हैं तो जब अन्य सहकारी कारण मिला तब पदार्थ ने कार्य को किया ऐसा अर्थ हुआ? - किन्तु ऐसा परवादी मान नहीं सकते क्योंकि उनके यहाँ प्रत्येक पदार्थ को या तो सर्वथा परिणामी परिवर्तनशील माना है या सर्वथा अपरिणमनशील माना है, यदि मान लिया जाये कि पदार्थ सर्वथा अपरिणामी है तथा स्वयं असमर्थ है परकी अपेक्षा लेकर कार्य करता है तो ऐसा मानना अशक्य है, क्योंकि जो अपरिणामी है उसको पर की सहायता हो तब भी जैसा का तैसा है और पर की सहायता जब नहीं है तब भी जैसा का वैसा पूर्ववत् है। इस विषय को प्रमाण विषय परिच्छेद में विस्तारपूर्वक कह दिया है अतः यहाँ नहीं कहते हैं। दूसरा पक्ष - सामान्यादि अकेला स्वतन्त्र पदार्थ स्वयं समर्थ होकर कार्य को करता है ऐसा मानना भी गलत है, क्योंकि समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥64॥ सूत्रार्थ जो समर्थ होकर कार्य करता है तो हमेशा ही कार्य की उत्पत्ति होना चाहिये? क्योंकि उसे अन्य कारण की अपेक्षा है नहीं। यह सर्वसम्मत बात है कि जो समर्थ है किसी की अपेक्षा नहीं रखता है उसका कार्य रुकता नहीं, चलता ही रहता है। परापेक्षणे परिणमित्वमन्यथा तदभावादिति ॥165 || सूत्रार्थ यदि वह समर्थ पदार्थ पर की अपेक्षा रखता है ऐसा माना जाय तो वह निश्चित ही परिवर्तनशील पदार्थ ठहरेगा। क्योंकि

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